लद्युकथा : कास्ट्यूम
( शब्द मसीहा केदारनाथ )
नये वर्ष के उपलक्ष्य में रंगारंग प्रोग्राम था . गाँव से आए अपने पिता को अपनी आनबान शान दिखाने के लिए बेटे ने दो के बजाय तीन टिकिट खरीदे . खुद पत्नी के साथ बैठ गया और पिता अलग बैठा दिए . कार्यक्रम शुरू हुआ .
तेज संगीत और रौशनी के बीच एक लडकी ने नृत्य प्रस्तुत किया .
“वाह ….बहुत सुन्दर .” जैसी कई आवाजें तालियों के साथ आने लगीं .
“अरे ! बावडा है के ? छोरी ने सुन्दर नाच दिखाया तो छोरी की फिकर करनी चाहिए .”
वह बुजुर्ग उठा और स्टेज के पास पहुँचा और जेब से सौ का नोट निकालकर उस लडकी को देते हुए अपनी शाल ओढा दी .
पूरा का पूरा मजमा ठहाकों से गूँज उठा . आवाजें आने लगीं .
“ओए …कौन है ये ?”
“किसने जंगल से भेज दिया इसे .”
“अरे , इस गँवार को निकालो यहाँ से .”
पति-पत्नी शर्म से पानी-पानी हुए जा रहे थे . हिम्मत नहीं हो रही थी कि वे उठकर अपने पिता को बैठा सकें या बता सकें कि यहाँ ऐसा ही होता है .
तभी लडकी ने माइक मांगा . बुजुर्ग का हाथ पकड़ा और बोलना शुरू किया-
“आप इनकी सरलता पर हँस रहे हैं ….ये आए नहीं हैं लाये गए हैं . इन्हें तो शायद ये भी नहीं मालूम कि इस शो की एक -एक टिकिट हजारों की आती है …आपके उन हजारों से कहीं ज्यादा महंगे है ये सौ रुपये और दुनिया के हर महंगे कास्ट्यूम से महँगी है ये शाल ….जिसमें एक बेटी के लिए अन्जान बाप का अपनापन है . आप मेरा हर अंग देखना चाहते हैं थिरकता हुआ मगर इन्हें मेरी चिन्ता है. पार्टी और उत्सव का अंतर सिर्फ़ ये ही जानते हैं .मैं चाहूंगी कि इन्हें यहाँ लाने वाले मुझे जरुर मिलकर जायें .” और वह बुजुर्ग का हाथ पकड़कर स्टेज से ओझल हो गई .