रचनाकार

संस्मरण : वह यात्रा

( डॉ. आभा माथुर )
उस वर्ष गर्मियों में मेरी सासु जी अपने बड़े बेटे अर्थात मेरे जेठ जी के पास गयी हुई थीं। वैसे वह हम लोगों के साथ ही रहती थीं
पर कभी कभी अपने दूसरे बेटे के पास भी चली जाती थीं ।
अचानक हम लोगों को भाई साहब का तार मिला कि माता जी की हालत बहुत ख़राब थी। उस ज़माने में शीघ्र सूचना देने के लिये तार ही दिया जाता था। २-४ घंटे के अंदर हम लोग सामान बाँध कर अलवर के लिए निकल पड़े जहांँ भाई साहब ( जेठ जी ) रहते थे ,साथ में हमारा दस माह का बेटा मयूर था । हमारे नगर से गन्तव्य स्टेशन तक सीधी ट्रेन उपलब्ध नहीं थी अत: ट्रेन बदलना आवश्यक था । जयपुर पहुंच कर ज्ञात हुआ कि पिंक सिटी एक्सप्रेस प्लेटफार्म पर खड़ी थी जो अलवर तक जाती थी जहांँ हम लोगों को जाना था ।
मेरे पतिदेव तो बच्चे को गोद में लेकर तेज़ चाल से चल पड़े और उनके साथ साथ सामान लिये हुए कुली चल पड़ा । मैं उतना तेज़ चलने में असमर्थ होने के कारण पिछ़ड़ गई थी । मेरे पतिदेव हर एक डिब्बे में झांकते जा रहे थे ताकि जिस डिब्बे में जगह दिखे उसमें घुसा जाये । मैं दूर से उन्हें देख रही थी । फिर भी न जाने कैसे वे अचानक मेरी आँख से ओझल हो गये । शायद वे किसी डिब्बे में चढ़ गये थे । वे किस ‌डिब्बे में चढ़े थे यह मैं नहीं देख पाई थी । अब क्या करूंँ? मैंने थोड़ी दूर जाकर अंदाज़ से एक डिब्बे में चढ़ कर चारों ओर देखा, उसके बाद अपने बच्चे का नाम लेकर आवाज़ भी लगाई पर कोई लाभ नहीं हुआ । इसके बाद मैंने अगले डिब्बे में घुस कर यही प्रक्रिया दोहरायी, पर पुन: प्रयास निरर्थक रहा। अगले डिब्बे में जाने पर ज्ञात हुआ कि कोई सज्जन जिनकी गोद में एक बच्चा भी था वे भी यही नाम लेकर आवाज़ लगा रहे थेे । मैं समझ गयी कि इधर मैं पतिदेव को ढूँढ रही थी उधर वे मुझे ढूँढ रहे थे पर जब तक मैं किसी डिब्बे में चढ़ती थी ,वे उस डिब्बे से जा चुके होते थे । हर डिब्बे की औरतें वही बता रही थीं जो पिछले डिब्बे की औरतों ने बताया था । अन्त में एक औरत के पास अपने बेटे को बैठा देख कर जान में जान आई । थोड़ी देर में पतिदेव भी वहीं आ गये ।
उस बुद्धिमती स्त्री ने मेरे पति को सुझाव दिया वे बच्चे को उसके पास बैठा दें , बच्चे की माँ यानि मेरे उस डिब्बे में पहुँचने पर उसे (मुझे) वहीं रोक लिया जायेगा। थोड़ी देर बाद वे (पतिदेव ) भी आकर देख लें। ऐसा उसने इसीलिए किया क्योंकि हम दोनों लोग प्रत्येक डिब्बा दो-दो तीन-तीन बार देख चुके थे, आवाज़ें लगा लगा कर थक गये थे और गाड़ी के
सभी यात्री जान गये थे कि हम लोग एक दूसरे से बिछुड़ गये हैं । ग़नीमत यह रही कि इस बीच.गाड़ी प्लेटफार्म पर ही खड़ी रही जिससे हम प्लेटफार्म पर उतर कर दूसरे डिब्बे में जा सके। अलवर पहुंच कर ज्ञात हुआ कि माता जी का स्वर्गवास हो चुका था।
यह घटना बिल्कुल सच्ची है।

( डॉ. आभा माथुर , सेवानिवृत्त प्राचार्य ज़िला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान हाथरस )

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