ये योगी सरकार के अवसान की आहट तो नहीं ?
■ डॉ. अम्बरीष राय
ये 2022 में निजाम के बदलने की प्रस्तावना है. ये गांव गांव योगी सरकार के प्रति बढ़ रहे असंतोष की झांकी है. अपने शिखर पर बैठी भाजपा और उसके अति उत्साही समर्थक भले ना मानें, लेकिन यूपी में भाजपा की जमीन बहुत तेजी से खिसक रही है. सुस्ताने बैठे पंचायत चुनावों की तेज चल रही साँसें बता रही हैं कि अगले साल की शुरुआत में होने वाले विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए कितने चुनौतीपूर्ण होने वाले हैं. यह वही परिणाम है, जिसका डर भाजपा नेतृत्व को लगातार सता रहा था. इसी के चलते योगी आदित्यनाथ की सरकार उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनावों से भाग रही थी. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जब यूपी सरकार का गला पकड़ा तो सरकार के पास कोई चारा बचा नहीं. नतीज़तन यूपी सरकार ने सूबे में पंचायत चुनाव कराए. हाल ही में समाप्त हुए पंचायत चुनावों में समाजवादी पार्टी ने भारतीय जनता पार्टी को पटखनी दे दी है. एक महत्वपूर्ण सवाल ये भी उठता है कि जिस पार्टी के पास वर्तमान में 309 एमएलए हों, सहयोगियों के साथ लोकसभा में 64 सांसद हों, पंचायत चुनावों के दौरान सरकार भी हो (आम तौर पर माना जाता है कि स्थानीय चुनावों में सत्ताधारी दल सरकार का खूब दुरुपयोग करता है), बूथ स्तर तक अभूतपूर्व संगठन हो, वो प्रधानमंत्री मोदी के बनारस में शर्मनाक प्रदर्शन करे. योगी के गोरखपुर में इज़्जत बचाती दिखे.
■ डॉ. अम्बरीष राय
कहीं ये योगी सरकार के अवसान की आहट तो नहीं है. कहीं ये आहट है उसी माहौल की तो नहीं, जहां पिछली अखिलेश यादव की सरकार दम तोड़ गई थी. कहीं ये आहट है उस पकते आक्रोश की तो नहीं, जहाँ प्रतियोगी छात्रों की आत्मा रो रही है, कलम की स्याही सूखने को मजबूर है. कहीं ये आहट है उस गुस्से की तो नहीं, जो रसोई घरों में उबल रहा है. और उबलने की कीमतें आसमान छू रही हैं. कहीं ये आहट है मौत के उस सन्नाटे की तो नहीं, जिसमें ऑक्सीजन के अभाव में लोग लाशों में तब्दील हो रहे हैं. अस्पताल में एक अदद बेड को तरस रही आँखों को, मुल्ला क्या कर रहा है, से कोई मतलब नहीं है. जय श्री राम के गगनभेदी नारों में चमकती योगी आदित्यनाथ की शख़्सियत से भी उसे कोई मतलब नहीं. और अगर मतलब होता तो अयोध्या में भाजपा का प्रदर्शन इतना खराब ना होता. अयोध्या जिला पंचायत की 40 सीटों में 24 पर समाजवादी पार्टी, 12 सीटों पर निर्दलीयों ने कब्ज़ा किया है. जबकि भाजपा के खाते में महज़ 6 सीटें ही आ सकीं हैं. बात अगर प्रधानमंत्री के संसदीय निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी की करें तो भाजपा के खाते में मात्र 8 सीटें आईं. भाजपा जैसे ताकतवर संगठन, जिसके पास बूथ ही नहीं बल्कि पन्ना प्रमुख तक की श्रृंखला हो, वहां पर ये परिणाम बताते हैं कि हार जीत की बुनियाद जनता रखती है. जीतने के लिए संगठन महत्वपूर्ण उपकरण है लेकिन सरकार की रीति नीति से परिणाम आकार लेते हैं. और ये आकार भगवा रंग का तो नहीं दिखता. एक और महत्वपूर्ण स्थान मथुरा की करें तो यहां भी भाजपा को झटका लगा है. भाजपा बस 8 सीटों तक अपनी पहुंच बना पाई. मुख्यमंत्री के जिले गोरखपुर में पार्टी सबसे ज्यादा 25 सीटें जीतने में जरूर कामयाब हुई लेकिन सपा 20 सीट तो बसपा सात सीटों के साथ मजबूत चुनौती बनी हुई हैं. मुख्यमंत्री के पद और कद को देखते हुए इन सीटों का कितना हर्ष हो सकता है ये भाजपा नेतृत्व ही समझ सकता है.
उत्तर प्रदेश में जिला पंचायत सदस्य चुनाव में सपा ने बाजी मारी. जिला पंचायतों में सपा समर्थित 790 प्रत्याशियों ने जीत हासिल की. बीजेपी समर्थित 599 उम्मीदवारों को जिला पंचायत में जीत मिली. जबकि निर्दलीय और अन्य दलों के 1247 प्रत्याशी जिला पंचायतों में जीते. पंचायत चुनावों में किसान आंदोलन का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखा. किसान आंदोलन के पुरजोर समर्थन के चलते राष्ट्रीय लोकदल ने पश्चिम में अपना प्रदर्शन सुधारा है. विधान सभा चुनावों के लिए सेमीफाइनल माने जाने वाले इन पंचायत चुनावों के परिणाम भाजपा के लिए खतरे की घंटी है. साफ तौर पर दिख रहा है कि जाट मतदाता उससे छिटक रहा है. सपा लोकदल की जुगलबंदी पश्चिम में भाजपा को घुटने पर ला सकती है. जाट मुसलमान को अलग कर चुनाव जीती भाजपा को सपा लोकदल का तोड़ खोजना आसान नहीं होने वाला. मध्य उत्तर प्रदेश की बात करें तो राजधानी लखनऊ में भाजपा औंधे मुंह गिर गई है. 3 सीटों पर सिमटी भाजपा 22 के विधानसभा चुनावों की पटकथा में सिसक रही है. बुन्देलखण्ड और पूर्वांचल के चुनावी परिणाम भाजपा के लिए राहत नहीं देते. 2012 में जब अखिलेश यादव सपा के लिए क्रांति रथ लेकर निकले थे, माहौल बसपा सुप्रीमो माया मेम साब के खिलाफ़ करवटें बदल रहा था. आज के माहौल की बात करें तो माहौल तप रहा है. जिसकी आंच से 5 कालिदास मार्ग गरमाने लगा है तो 7 लोक कल्याण मार्ग पर सियासी उहापोह चरम पर है. भाजपा एक राजनीतिक आंदोलन जो एक पार्टी तक सिमटा. फिर सत्ता के व्यामोह में ऐसा उलझा कि आरोप प्रत्यारोप, साजिश, सम्मोहन, सरकार हासिल रहा, बाकी विश्वसनीयता जमीन पर आ चुकी है. साथ ही सत्ता के समर्थक भी जमीन पर आ चुके हैं. भाजपा जहां श्रेय लेने के लिए चेहरे हैं, वहीं ज़िम्मेदारी और जवाबदेही के नाम पर हर वक़्त नए चेहरे की तलाश होती रही है.
उत्तर प्रदेश की भगवा सियासत में धूमकेतु की तरह उभरे योगी आदित्यनाथ जब 2017 में मुख्यमंत्री बने तो. सरकार के चेहरे के तौर पर योगी आदित्यनाथ चमकने लगे. ज़िम्मेदारी और जवाबदेही के मुश्किल सफ़र से उनको बचाने के लिए योगी समर्थकों ने एक लाइन ली. एक अभियान चलाया गया कि योगी जी बस मुखौटा भर मुख्यमंत्री हैं, असली पॉवर तो मोदी शाह के पास है. जिनकी कृपा से भाजपा के संगठन महामंत्री सुनील बंसल सुपर सीएम हैं. एक तरफ योगी आदित्यनाथ मीडिया की सुर्खियों में चमकते रहे, दूसरी तरफ नाकामियों का ठीकरा फोड़ने के लिए कभी केशव प्रसाद मौर्या, कभी दिनेश शर्मा, कभी सुनील बंसल, कभी संगठन, कभी कार्यकर्ता तो कभी जनता को भी चुना गया. लेकिन बेचारे मुख्यमंत्री समर्थक कभी ये बता नहीं पाए कि एक योगी के साथ ऐसी कौन सी मज़बूरी थी कि वो बिना अधिकार के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने रहे. जब मोदी शाह का इतना दख़ल है तो भगवाधारी मुख्यमंत्री बनकर क्यों बैठा रहा. योगी के मंत्रियों का अपना दर्द है. अपने मुद्दे हैं. लगभग सभी रोते मिलेंगे. बोलेंगे कि इस सरकार में कोई सुनवाई नहीं. विभागीय प्रमुख सचिव सुनता नहीं. सीधे मुख्यमंत्री से निर्देश लेता है. लेकिन उसके पास भी कोई जवाब नहीं है कि जब तुम नख दंत विहीन हो तो क्यों पद पर बने हुए हो. कौन सा किला फ़तह कर रहे हो. भाजपा विधायकों की बात करिये तो वो भी रोना पुराण खोलकर बैठ जायेंगे कि बस आईएएस माई बाप हैं. एसपी डीएम सुनते नहीं. मुख्यमंत्री के यहां जाओ तो गाली सुनकर वापस आ जाओ. लेकिन वो भी अपना पद छोड़ने को राजी नहीं. यहीं हाल भाजपा जिला अध्यक्षों का भी है. कोई नहीं सुन रहा कि शिकायती माला के साथ वो भी पद पर बैठा हुआ है. यही हाल उससे छोटे पदाधिकारियों का भी ठहरा. लेकिन इस्तीफ़ा एक भी पदाधिकारी नहीं देता. सब चुपचाप कमल छाप का मज़ा लूटने में लगे हैं. अब सवाल उठता है कि फिर मुख्यमंत्री से लेकर निचले तबके के पदाधिकारी आखिर किस वज़ह से पद पर बने हुए हैं. क्या सत्ता की मलाई है और उसमें सबकी हिस्सेदारी है, जो उनको पद पर बने रहने के लिए मज़बूर करती है.
गज़ब सरकार है साहेब! यहां किसी की सुनवाई नहीं है. भ्रष्टाचार का रेट पिछली सरकारों से ज़्यादा हो चुका है. एक अजब सी अराजक स्थिति बनी हुई है.फिर जनता ने चुना किसको और क्यों??? आखिर जनता फिर अपने हक़ो हुक़ूक़ के लिए किसके पास जाए. ऐसे में कोरोना से मरता उत्तर प्रदेश भाजपा को सियासत की उसी कोठरी तक ले जा सकता है, जहां वह बीसियों साल अपने हाल पर रोती रही है. अब देखना दिलचस्प होगा कि सियासी मोर्चे पर आई इस चुनौती से भगवा ब्रिगेड कैसे निपटती है. फ़िलहाल लोहिया के लोग मुस्कुराने को हैं.
(उत्तर प्रदेश पंचायत चुनावों के परिणाम पर राजनीतिक विश्लेषण)