रचनाकार

वह सबेरा कब आयेगा

(मनोज कुमार सिंह)

जब हर बचपन भोर की कलियों की तरह,
हँसता, खिलखिलाता ,मुस्काराता नजर आयेगा ।
झुरमुटों से कूॅजती कोयल की कूक की तरह ,
जब नन्ही-नन्ही बच्चियों की किलकारियों से खुशियों के गीत गूँजेगे ।
हर बसंत की नूतन कोपलों की तरह ,
जब हर शैशव बिना किसी भेदभाव के सयाना होगा ,
हर सावन की हरियाली के मनमोहक एहसास की तरह,
हर यौवन अपनी क्षमता,कर्मठता और चरित्र का श्रृंगार करेगा ,
हर बूढ़े बरगद की शीतल छाॅव की तरह,
हर बुढापा हर यौवन का परिमार्जन और परिष्कार करेगा ,
जब बचपन,शैशव,यौवन और बुढापे का सारा ,
द्वन्द अंतर्द्वंद्व और मतभेद मिट जायेगा ।
तब सचमुच का सुनहरा,सुहावन सबेरा जरूर आयेगा ।
जिम्मेदारियों के बोझ तले दबा-कुचला हुआ नहीं,
कूडे की ठेर में खाने-पीने और घर-गृहस्थी के सामान ढूँढता हुआ नहीं,
मजबूरियों के चलते जूठे बर्तनों से जोर-आज़माइश करता हुआ नहीं,
चन्द सिक्कों की लालच में सियासी रैलियों में नारे लगता नहीं,
पेट-पर्दे की खातिर भरी भीड़ में या भीड़ भरे मेले में,
सर्कस तमाशे की रस्सी पर बदन को तोड़ता-मरोडता नहीं,
तेरे-मेरे की भावनाओं से कोसों दूर,
सुख-दुःख की संकल्पनाओं परिकल्पनाओं से परे,
नून मिरचा धनिया की चिन्ताओं से बेफिक्र,
कोरे कागज सरीखे मन से स्वतंत्रत और स्वच्छंद ,
अपने ख्वाबों ख़्वाहिशों और सपनों से अठखेलियां करता हुआ ,
अपनी उंमगो, तंरगो और स्निग्ध उम्मीदों आशाओं में गोते लगाता हुआ ,
कागज की ही सही पानी में नाव तैरता हुआ या जहाज उडाता हुआ,
या आसमान में उडती पंतगो की डोर की पकड़े हुए,
उछलता कूदता दौडता हुआ बचपन जब हर घर-आंगन के हिस्से में आयेगा,
तब शहीदो के सपनो का असली सबेरा जरूर आयेगा।
जब बखरा बंटवारा हिस्सा रक्तरंजित नहीं होगा,
हर हृदय हर्षित और मन निर्भय होगा ,
मस्तिष्क सारी शंकाओ आशंकाओं से पूर्णतः मुक्त होगा,
चहकता आंगन,खुली खिड़कियाँ और भय मुक्त दरवाज़ा होगा,
जब हर कोई हर किसी का सच्चा और सजग पहरूआ होगा।
तब सबके सपनों का सच्चा सबेरा जरूर आयेगा।

लेखक – मनोज कुमार सिंह, बापू स्मारक इंटर कांलेज दरगाह मऊ में प्रवक्ता हैं।

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