संदीप तोमर की 9 लघु कथाएं
@ सन्दीप तोमर…
चरित्र….
पहला पैग बनाकर दो सिप ले उसने सिगरेट सुलगाई और घड़ी को देखा, उसके दोस्त के आने में अभी वक़्त था। चिकेन को मेरिगेट करने की गरज से उसने पहले ही तैयारी कर रखी थी। मसाले इत्यादि भी सब तैयार थे। किचन में ही ऐशट्रे पर सिगरेट को रख उसने गैस पर कढ़ाई को रख दिया। अभी उसने दो सिप और लिए ही थे कि उसका मोबाइल बज उठा। कॉल उसकी प्रेमिका का था। प्रेमिका के संग बातचीत में मशगूल होने की वजह से उसका ध्यान ऐशट्रे पर रखी सिगरेट पर गया जो आधे से ज्यादा जल चुकी थी। उसने एक झटके में गिलास खाली किया, सिगरेट को उसने उँगलियों के बीच फंसाया और एक लंबा कश लिया, आवाज कुछ ऐसी कि मोबाइल की दूसरी तरफ भी आवाज को साफ-साफ सुना जा सकता था। उसे एक बारगी अपनी गलती का अहसास हुआ, दूसरे पल उसका ध्यान कढ़ाई पर केन्द्रित हो गया।
प्रेमिका ने सवाल किया-“ दीपक! तुम शराब पीते हो?”
वह हदबड़ाया, उसकी निगाह अभी-अभी खाली हुए गिलास पर गयी। उसने जवाब दिया-“शराब और मैं? मेरे पिताजी का गुस्सा जानती हो न?”
“फिर तो तुम माँस-मच्छी भी नहीं खाते होंगे?”
उसे याद आया पिछले ही महीने कैसे उसकी प्रेमिका रेस्त्रों के मन्यू-कार्ड में नॉनवेज लिखा हुआ देखकर उसे वहाँ से उठाकर ले आई थी। अब वह खुद पर बौखलाने की स्थिति में था। उसने माँस-मच्छी की बात को छुपाने का मन बनाया। कडछी को कढ़ाई में घुमाते हुए उसने जवाब दिया-“दो साल पहले सब छोड़ दिया।“
बची हुई सिगरेट में सुट्टा खीछ वह गैस को मंदा कर दूसरे कमरे की ओर बढ़ा। मोबाइल स्पीकर पर स्वर उभरा-“दीपक! जानते हो मैं हमेशा ऐसे प्रेमी की कामना करती थी जो सिगरेट, शराब, माँस-मछ्ली सबसे दूर हो, तुम कितने अच्छे हो, जो आज के जमाने में इन सबसे दूर हो।“
उसने अपना पसंदीदा गोल्डन कश लेने का विचार छोड़ बची हुई सिगरेट को फर्श पर फेंक पैर से मसलने का विचार बनाया। अगले ही पल वह जलती सिगरेट को छोड़ खाली गिलास में दूसरा पैग डालने के लिए आगे बढ़ गया।
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पहचान…
“कहाँ रहती हो?”
“जी, द्वारका।”-उसने नपातुला जवाब दिया।
“द्वारका में कहाँ?” मैंने फिर पूछा।
“सर! असल मे मैं उत्तम नगर रहती हूँ।”-बोलते हुए वह कुछ सकुचाई।
“किस कॉलोनी में रहती हो, कल ही चाय पीने आते हैं तुम्हारे यहाँ।”-मैंने बात को थोड़ा आगे बढ़ाने की गरज से कहा।
“सर, आप उत्तम नगर के बारे के जानते हैं?”-उसने आश्चर्य से सवाल किया।
“इंद्रा पार्क, वाणी विहार, जीवन पार्क…।” -मैंने कॉलोनियों की फेहरिस्त पढ़नी शुरू की।
“सर, मैं शीशराम पार्क में रहती हूँ।”- वह थोड़ा सकुचाते हुए बोली।
“शीशराम और नंदराम दो भाई थे, उन दोनों के नाम पर दो जुड़वा कॉलोनी हैं।”
“मैं नन्दराम पार्क में ही रहती हूँ।-अब वह थोड़ा झिझकते हुए बोली।
“पाली फैक्ट्री से आगे निकलिए, बाएं मुड़िये फिर दाएं, एक बार फिर और बाएं, बस पहुँच गए नन्दराम पार्क।”-मैंने उसकी दिलचस्पी बढ़ानी चाही।
“कितना कुछ जानते हैं आप हमारी कॉलोनी के बारे में।”-उसने विस्मय भरे लहजे में कहा।
“हाँ, बालिका! जानता तो मैं इंसानी ज़हन के बारे में भी बहुत कुछ हूँ।”
“सर, असल में नन्दराम पार्क का नाम लेते ही लोग…।”-आगे वह कुछ बोल नहीं पाई।
“किसी का स्तर उसकी कॉलोनी से नहीं बल्कि उसकी सोच से बनता है, तुम देश के प्रतिष्ठित संस्थान की शोध-छात्रा हो, यही तुम्हारी सबसे बड़ी पहचान है, इसलिए खुद पर गर्व करो।”
मेरे ऐसा कहते ही उसने आश्चर्य से भरकर कहा-” सर, काम निपट गया हो तो साथ घर चलें, क्या हैं ना- मेरी मम्मी बहुत अच्छी कॉफी बनाती है।”
अचानक उसमें इस परिवर्तन को देख मैं विस्मित हो उसे देखता रह गया। उसके आत्मविश्वासी चेहरे पर उसके भविष्य का हर पन्ना मुझे स्पष्ट दिखाई देने लगा।
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विडम्बना…
वो न जाने कब से भूखा था। उसने राजा के दरबार में गुहार लगाई। राजा ने तीन दिन बाद अपने कारिंदे को भेज भूखे व्यक्ति को भोज पर बुला लाने को कहा। जब कारिंदा उसके घर पहुंचा तब तक भूखा व्यक्ति कलश में तब्दील हो चुका था। पड़ोसी वह कलश कारिंदे को देकर बोला- “वह बूढ़ा अब इस कलश में है। राजा साहब से कहिये कि इसकी तेहरवीं पर भूखों को भोज करा दें, ताकि और कोई भूखा उम्र से पहले कलश में न जा सके।”
कारिंदे ने राजा के पास पहुंचकर कलश उन्हें देते हुए सारा किस्सा कह सुनाया।
अगले दिन शहर मे ऐलान हुआ-“कल के दिन सभी भूखों को राजा की तरफ से भोज कराया जाएगा, एक दिन शहर में कोई भूखा नहीं रहेगा।”
भूखे लोगों में फुसफुसाहट शुरू हुई, आनन-फानन में एक सभा बुलाई गयी। एक भूखे ने ऐलान कर दिया-“एक दिन के भोज की राजा की दी गई भीख का हम विरोध करते हैं, कल पूरे शहर में हम सब एक दिन का उपवास रखेंगे।”
सभी भूखे एक-एक करके सभा से जाने लगे थे…।
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अनुभव…
यह एक मल्टीनेशनल कंपनी का एच आर रूम है। मेज के उस ओर इंटरव्यू बोर्ड बैठा हुआ है। वह इंटरव्यू बोर्ड के सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया।
“नाम?”
“जी, रामखिलावन।”
“आज के दौर में इस तरह का नाम।”
“जी, बचपन से यही नाम है?”
“घर मे कितने भाई-बहन हैं?”
“जी एक भी नहीं, अकेला हूँ।”
“सब आपसे बड़े होंगे, मतलब शादीशुदा।”
“नहीं, सर एकदम अकेला हूँ।”
“ओह, डेट्स रियली गुड।”
“……।”
“माँ- बाप क्या करते हैं?”
“जी, माँ-बाप नहीं हैं।”
“डेट्स अगेन गुड।”
“……..”
“शादी हुई?”
“सर, फिलहाल तो नहीं हुई, अभी पाँच साल तक करने का इरादा नहीं है।”
“वेरी गुड।”
“सर, एकेडेमिक मेरा काफी अच्छा है, ये देखिये मेरे सर्टिफिकेट।”
“नो जेंटलमैन, इनकी कोई जरूरत नहीं। यू आर सूटेबल फ़ॉर दिस जॉब।”
वह एच आर रूम से बाहर आ जाता है। घर वापसी पर सोचता है, अब माँ-बापू का इलाज भी ठीक से हो पायेगा। भाई की ट्यूशन फीस भी दे पाएगा। छोटी बहन पत्राचार की फीस भर पढ़ाई पूरी कर ही लेगी। पत्नी तो नौकरीं का सुन बहुत खुश होगी, कब से पिकनिक प्लान कर रही थी, मैं ही पैसे की तंगी से टालता रहा था।
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“बालमन”…
बिट्टो रोज घर में रोशनदान में बने गौरैया के घोंसले में होने वाली हलचल पर नजर रखती। कैसे गौरैया और उसका चीड़ा तिनका-तिनका इकट्ठा करके घोसला बना रहे थे। फिर उसके अंडे देने से चूजे निकलने और उन चूजों को चुग्गा देने तक की घर घटना को उसने देखा था। चूजों के बड़े होने तक भी वह उन्हें चुग्गा देती रही। फिर उन्हें पंख फड़फड़ा कर उड़ना भी सिखाया।
आज बिट्टो ने जो देखा वह उसके लिए अप्रत्याशित था। गौरैया अपने ही बच्चो को चोंच मारकर घोसले से भगा रही थी।उसने जब माँ से इस बारे में जानना चाहा तो माँ ने उसे बताया कि अब उसके बच्चे बड़े हो गए हैं इसलिए वे अपना नया घोसला बनाएंगे। तभी तो गौरैया उन्हें भगा रही है।
बिट्टो ये सोच मायूस हो गयी कि एक तरफ ये पक्षी हैं जो अपने बच्चों के बड़े होने पर उन्हें स्वावलंबी बनाने के लिए घोसला छोड़ने को कह रहे हैं और एक उसके पड़ोसी हरीश अंकल हैं जिन्होंने अपने माँ बाप को घर से निकाल दिया था।
बिट्टो का बाल मन कराह उठा था।
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“जनहित”…
एक मास्टर था, दूसरा वैज्ञानिक। दोनो ही अलमस्त। पहले ने मास्टरी छोड़ी तो दूसरे ने वैज्ञानिक के पद से इस्तीफा दे दिया। दोनो ही आला दर्जे के फक्कड़।
वैज्ञानिक महोदय नई खोज का जुनून पाले रहते तो मास्टर साहब उनके लिए फंड का जुगाड़ लगाते।
एक शाम को वैज्ञानिक महोदय मास्टर साहब के पास आये, बोले-” एक जबरदस्त खोज होने वाला है। एयर प्रेशर से टॉयलेट साफ करने का सूत्र हाथ लगा है। सैद्धान्तिक तौर पर कामयाबी मिल गयी। बस दो चीजों का इंतज़ाम करना है, एक सिलेंडर और दूसरा एक कमोड। लोहे का खाँचा बनाने में, डाई बनाने में बड़ा खर्च आएगा। कुछ जुगाड़ लगाइये, ताकि इस काम को अंजाम दिया जा सके।”
मास्टर साहब ने उन्हें अपने पुराने से स्कूटर पर बैठाया और रेलवे के ट्रेक पर ले आए और एक बॉगी के टॉयलेट में ले जाकर बोले-” इससे काम चलेगा?”
“हाँ काम तो चलेगा लेकिन…..।”- वैज्ञानिक ने मानो कुछ कहना चाहा।
“फिर ठीक है।”-कहकर मास्टर साहब ने कमोड उखाड़ने के लिए बारी से अभी पहला वार ही किया था कि रेलवे का चौकीदार आ धमका। आवाज सुन उसने दोनो को बोगी से उतारा और गरजकर बोला-” चोरी करते हो। अभी तुम्हें ठीक करता हूँ।”
वैज्ञानिक साहब को प्रोजेक्ट जेल में सड़ता नजर आया लेकिन मास्टर साहब ने बात संभाली-” देखिये कोतवाल साहब, हम ये चोरी देश हित में कर रहे हैं। ये बहुत बड़े वैज्ञानिक हैं। अपने प्रयोग से कम पानी से धोने और साफ करने की सुविधा देने वाले हैं। आपके सहयोग से ये सब संभव हो सकता है। देश आपका ऋणी रहेगा।”
मास्टर साहब ने सौ का मुड़ा-तुड़ा नोट उसकी ओर बढ़ाकर पूरी योजना समझा दी।
चौकीदार को खुद को कोतवाल सुनना बेहद अच्छा लगा। उसने सौ का नोट अपने खाकी कोट की जेब में ठूंसते हुए थोड़ा डपटने के लहजे में कहा-” ठीक है – ठीक है। लेकिन खबरदार इस कमोड का उपयोग जनहित में ही होना चाहिए।”
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‘मिल्कियत”…
“कहाँ घुसे चले आ रहे हो?- सरकारी शौचालय के बाहर खड़े जमादार ने अंदर घुसते हुए भद्र को रोकते हुए कहा।
“हाजत लगी है।”-भद्र पुरुष ने जवाब दिया।
“तुम ऐसे चुपचाप नहीं जा सकते।”-जमादार ने प्रतिउत्तर में बोला।
“अरे भाई हाजत क्या ढिंढोरा पीटकर जाऊँ? अजीब बात करते हो।”-भद्र पुरुष झुंझलाया।
“मेरे कहने का मलतब है फोकट में नहीं जा सकते।”
“क्यों भाई ये सरकारी शौचालय नहीं है?क्या ये किसी की मिल्कियत है।”
“वो सब हमें नहीं मालूम, सूबे के हाकिम का आदेश है, आज से हाजत का दस रुपया देना होगा। खुल्ला दस का नोट हो तो हाथ पर रखो वर्ना दफा हो जाओ।”
भद्र पुरुष का मरोड़ के मारे बुरा हाल था। एक हाथ से पेट पकड़ वह दूसरे हाथ से जेब टटोलने लगा।
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“बटवारा”…
एक झबरू था तो दूसरा चितकबरा। दोनो जंगेजी थे। । जो भी हारता उसका मालिक हार जाता। दोनो के ही मालिकों ने साल भर से उन्हें बड़ी अच्छी खुराक दी थी। दोनों में से कोई भी इस इक्क्यावन हजारा दंगल में हार देखना नहीं चाहता था। दोनो ही अपनी-अपनी पहलवानी का नज़ारा दिखा तालियाँ बटोर रहे थे। लड़ते-लड़ते दोनो के मुँह से खून आने लगा।
झबरू ने एक दाव चला और चितकबरा का मुँह भंभोड़ दिया। चितकबरा ने उसकी कमर को अपने नुकीले दांतों में भरा और पटकनी दे दी। अब चितकबरा ने झबरू के कान में कहा-“दोस्त इन सबका मनोरंजन हो रहा है और हम दोनों के शरीर की हालत नाजुक हुई जा रही है।”
“हाँ, लेकिन हारने का मतलब- मालिक जान से मार देगा।”
“पता है हारने पर हमारे मालिक को इनाम की राशि भी नहीं मिलेगी।”
झबरू ने एक बनावटी दाँव चलते हुए चितकबरा को कहा-“हाँ दोस्त, एक काम करते हैं दोनो ही एक-एक कदम पीछे हटते हुए उठ न पाने का ड्रामा करते हैं।”
“लेकिन उससे किसी के भी मालिक को एक भी फूटी कौड़ी नहीं मिलेगी।”
“न मिले फूटी कौड़ी। मुकाबला तो बराबरी पर छूटेगा। मौत से बेहतर बराबरी है।”
“ठीक है दोस्त, वैसे भी हम इंसान तो हैं नहीं जो इनाम के लिए हार कर इनाम की राशि का बंटवारा कर लें।”
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“खुदा का घर”…
वह मस्जिद गॉव के बाहर स्थित उस मस्जिद का दरवाज़ा बंद थाI लोग रात आठ बजे की नमाज अदा करके कब के अपने अपने घरों को जा चुके थेI बाहर तूफ़ान और बारिश जोरो पर थेI तभी किसी ने मस्जिद का दरवाज़ा खटखटाया।
“कौन है वहाँ?” हाथ में लालटेन पकडे मौलवी ने दरवाज़ा खोलते हुए पूछा।
“क्या एक रात के लिए यहाँ आश्रय मिलेगा?” बाहर सर से पाँव तक भीगी एक बुरकाधारी महिला ने उम्मीद भरे स्वर में बहुत ही विनम्रता से पूछाI
“नहीं! यह इबादतखाना है कोई सराय नहीं है, वैसे भी यहाँ कोई ज़नाना नहीं रह सकतीI” मौलवी ने बहुत ही रूखे स्वर में उत्तर दियाI
“लेकिन इस तूफ़ान और बारिश में मैं कहाँ जाऊँ बाबा?” महिला गिड़गिड़ाईI
उसकी बात अनसुनी करके मौलवी पीठ मोड़ कर मस्जिद का दरवाजा बंद करने के लिए पलटा तो महिला की मायूसी और बढ़ गईI
“बीबीजी! वो सामने कब्रिस्तान है, वहां छप्पर के नीचे रात काट लोI” पास ही बारिश से बचने के लिए पेड़ के नीचे खड़े एक बुज़ुर्ग की आवाज़ सुनकर जैसे डूबते को तिनके का सहारा मिल गयाI जलती हुई आँखों से मौलवी को घूरते हुए वह महिला गुर्राई:
“लगता है खुदा ने अपना घर बदल लिया हैI”
मौलवी ने हिकारत से मस्जिद का दरवाज़ा धडाम से बंद कर दिया।
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लेखक परिचय
सन्दीप तोमर
जन्म : 7 जून 1975
जन्म स्थान: खतौली (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा: एम एस सी (गणित), एम ए (समाजशास्त्र, भूगोल), एम फिल (शिक्षाशास्त्र)
सम्प्रति : अध्यापन
साहित्य:
सच के आस पास(कविता संग्रह 2003)
टुकड़ा टुकड़ा परछाई(कहानी संग्रह 2005)
शिक्षा और समाज (आलेखों का संग्रह 2010)
महक अभी बाकी है (संपादन, कविता संकलन 2016)
थ्री गर्ल फ्रेंड्स (उपन्यास 2017)
एक अपाहिज की डायरी (आत्मकथा 2018)
यंगर्स लव (कहानी संग्रह 2019)
समय पर दस्तक (लघुकथा संग्रह 2020)
एस फ़ॉर सिद्धि (उपन्यास 2021, डायमण्ड बुक्स)
कुछ आँसू, कुछ मुस्कानें ( यात्रा-अंतर्यात्रा की स्मृतियों का अनुपम शब्दांकन, 2021 )
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