दर्दे- दिल की ख़्वाहिशों का क्या कहूँ,
ग़ज़ल…अशोक कुमार एडवोकेट
“अश्क चिरैयाकोटी”
है हसद में क्या रखा,कुछ भी नहीं,
दोस्ती, यारी, वफ़ा कुछ भी नहीं।।
सैकड़ों दावे चरागाँ के हुए,
पर अँधेरों को हुआ कुछ भी नहीं।।
वो मुझे कमतर बताता रह गया,
क़द मगर उसका बढ़ा कुछ भी नहीं।।
ज़िन्दगी तो है ग़मों के दरमियाँ,
औ ग़मों का दायरा कुछ भी नहीं।।
आम कैसे इश्क़ की बातें हुईं,
जबकि होटों ने कहा कुछ भी नहीं।।
दर्दे- दिल की ख़्वाहिशों का क्या कहूँ,
इक दुआओं के सिवा कुछ भी नहीं।।
ज़ुल्म ढाकर “अश्क” वो ख़ुश यूँ हुआ,
जैसे उसने हो किया कुछ भी नहीं ।।
आप सिविल कोर्ट मऊ, जनपद- मऊ में अधिवक्ता हैं।

