कहां खो गई कांशीराम की बसपा
यशोदा श्रीवास्तव…
यूपी की सियासत में कभी बेहद कद्दावर नेता रहीं मायावती अब अपनी उपस्थिति मात्र के लिए बेचैन हैं। यहां विधानसभा की दस सीटों पर उपचुनाव होना है जिसकी घोषणा फिलहाल अभी बाकी है। मायावती जिनकी नीति उपचुनाव नहीं लड़ने की रही है,वे इस उपचुनाव में भाग्य आजमाने का ऐलान कर चुकी हैं। इस बीच उनके हाल के विपक्षी दलों खासकर कांग्रेस विरोधी बयानों से यह समझ पाना मुश्किल है कि वे किस राह पर हैं? जहां तक यूपी में उपचुनाव की बात है तो जाहिर है उनकी कोशिश भाजपा के मुकाबले इंडिया गठबंधन को ताकतवर होने से रोकने की ही होगी।
राहुल गांधी के डोजो यात्रा के ऐलान को गरीबों के मजाक से जोड़कर मायावती अपने लोगों के ही सवालों से घिरी गई हैं। उन्होंने राहुल गांधी के इस ऐलान के खिलाफ ताबड़ तोड़ तीन ट्वीट कर उनपर निशाना साधा। यही नहीं मायावती राहुल गांधी के सत्ता पक्ष के हर आक्रामक तेवर पर जितनी तत्परता से अपनी प्रतिक्रिया देती हैं उतना वे भाजपा के खिलाफ कभी नहीं दिखी। हालांकि इसके पीछे उनकी “मजबूरी”लोग समझ रहे हैं। खासकर उनके वोटर जिनका इस्तेमाल कर वे यूपी की तीन बार मुख्यमंत्री रही हैं।अब तो उनके लोग ही कहने लगे हैं कि कांग्रेस या राहुल गांधी को घेरने के लिए मायावती का आधार बहुत सतही होता है। इससे दलित और गरीब तबका बसपा के पाले में लौटने वाले नहीं हैं। उन्हें बसपा को कांशीराम की बसपा बनानी होगी।
लोकसभा चुनाव और उसके पहले विधानसभा के चुनाव में बसपा कमजोर हुई है। विधानसभा चुनाव में मात्र एक सीट पाने से मायावती ने सबक नहीं लिया नतीजा 2019 में सपा के साथ लड़कर लोकसभा की दस सीटें जीतने वाली बसपा 2024 में एक भी सीट नहीं जीत पाई। इस चुनाव परिणाम पर चुनाव विश्लेषकों ने खुले तौर पर मानां कि दलित और मुस्लिम वोटर अब बसपा के साथ नहीं रहे। 2019 में बसपा के हारे हुए मुस्लिम उम्मीदवार भी तीन चार लाख वोट हासिल कर लिए थे। वहीं 2024 के लोकसभा चुनाव में कई जगहों पर बसपा के मुस्लिम उम्मीदवार 50 हजार वोट भी नहीं पा सके। उनकी राजनीतिक स्ट्रेटजी को भाजपा को फायदा पहुंचाने वाला माना जा रहा है। जानकारों का कहना है कि मायावती का भाजपा विरोध महज रस्मी होता है जबकि वे सपा और कांग्रेस को बिना किसी ठोस वजह के घेरने की कोशिश करती हैं। भाजपा से उनकी नजदीकियां भी बसपा के लिए नुकसानदेह साबित हुआ है। बीच लोकसभा चुनाव में उन्होंने अपने भतीजे आकाश आनंद का पर इसलिए कतर दिया कि वह भाजपा के प्रति मुखर थे। बसपा में अभी जो कांशीराम के अनुयायी हैं,उन्हें मायावती का यह कदम अच्छा नहीं लगा था। लोकसभा चुनाव में करीब एक दर्जन लोकसभा सीटों पर उन्होंने जो उम्मीदवार उतारे थे,वे चुनाव जीतने के लिए नहीं इंडिया गठबंधन को हराने के लिए थे। मायावती यदि इसे ही अपनी जीत मान रही हों तो निसंदेह यह उनकी जीत है।
जाहिर है कि लोकसभा चुनाव की ही तरह यूपी के विधानसभा उपचुनाव में उनकी चुनावी बिसात खुद जीतने की कम है,किसी को हराने की ज्यादा है। मायावती की यह रणनीति उनके परंपरागत वोटर समझ चुके हैं,यही वजह है कि वे उनसे किनारा करते जा रहे हैं। जानकार कहते हैं कि हालांकि यह अच्छा नहीं है। यूपी की राजनीति में मायावती की तीसरी शक्ति बने रहना जरूरी है,यह दुर्भाग्य है कि इसे वे खुद नहीं समझ पा रही हैं। मायावती कहती हैं कि उनका सक्रीय राजनीति से संन्यास का इरादा नहीं है लेकिन अपनी खोई जमीन वापस पाने का कोई ठोस जतन भी तो नहीं है। यूपी की राजनीति में हांसिए पर आ चुकी बसपा का सपा और कांग्रेस के विरोध मात्र से उठ खड़ा हो पाना संभव नहीं है।
मजे की बात है कि इंडिया एलायंस जहां भाजपा से दो दो हाथ करने को तैयार है वहीं बसपा इसे कमजोर करने की पुरजोर कोशिश में ही रहती है। बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर के पद चिन्हों पर चलकर यूपी के कोने कोने में अपनी पैठ बनाने में बसपा के छोटे छोटे कार्यकर्ताओं का बड़ा योगदान था। सवर्णों के खिलाफ उसका नारा”तिलक तराजू और तलवार….”काफी चर्चित हुआ था। बसपा का यह वही नारा था जिसने दलित समाज को सवर्णों के खिलाफ खड़ा कर दिया था। लेकिन बसपा की ताकत जब बढ़ी और वह राजनीति में कुछ कर पाने की स्थिति में आई तो यह ठेकेदार और रिटायर्ड अफसरों के राजनीतिक आश्रयदाता वाली पार्टी बन गई। विधानसभा अथवा लोकसभा चुनाव में इन्हीं लोगों में टिकटों का बंटवारा होने लगा। दलित समाज के बीच का आम कार्यकर्ता दरकिनार किया जाने लगा। धीरे धीरे मायावती की राजनीति का हवा महल भरभराने लगा।”दलितों के सम्मान” जैसा सम्मोहन करने वाला मायावती का मंत्र भी निष्प्रभावी होने लगा। इंडिया गठबंधन के संविधान की रक्षा अभियान में भी मायावती खामोश रहीं,उल्टे सपा और कांग्रेस पर लगातार तंज ही कसती रहीं। आज हाल यह हो गया है कि यूपी की सियासत में मायावती अलग थलग हैं। मायावती की शिनाख्त भाजपा के सहयोगी के रूप में हो चुकी है। लोग उन्हें एक डरी हुई नेता की दृष्टि से देखने लगे हैं।