कविता : पापा
@ रश्मि लहर, लखनऊ
जब गरीबी से मिला
खुरचा ये तन आधा कभी ।
सांत्वना का लेप लेकर
आ गए पापा तभी ।
कर दिया कंटक हटाकर
हर दिवस आसां सफर ।
जिक्र करते थे कभी ना
विवशताओं का मगर ।
दौर संघर्षों का था
हारे नहीं पापा कभी।
सांत्वना का लेप लेकर
आ गए पापा तभी।।
हो निकट रिश्तों में अनबन
तो सदा झुकते मिले।
अपनों की मुस्कान खातिर
वो सदा मिटते मिले।
गीत बेबस दास्ताँ का
पर सुनाया ना कभी ।
सांत्वना का लेप लेकर
आ गए पापा तभी।।
रिक्त गर पाते थे मेरे
स्वप्न का आँगन कभी ।
भर दिया करते थे उसमें
चाँदनी के कण सभी ।
नेह जी भरकर लुटाया
कुछ नहीं मांगा कभी ।
सांत्वना का लेप लेकर
आ गए पापा तभी।।