पुण्यतिथि विशेष… “महादेवी वर्मा”
( ओमा The अक् )
“भादो का महीना था..घनघोर घटाएँ छाई थीं…श्वेत-पृष्ठों पर एक लेखनी लेटी हुई थी…पावस-ऋतु की पवन..पृष्ठों का स्पर्श तो करती थी..परन्तु उन्हें उड़ाती नहीं थीं…क्यों कि …पवन को पता था…इन श्वेत-पृष्ठों पे लेटी हुई लेखनी…वर्षों तक चली है…जैसे प्रकृति-माँ की उँगलियाँ चलती हैं, और विलक्षण-मूरतें निर्मित करती हैं…इस लेखनी ने भी रेखा-चित्रों का एक अमर संसार रचा है..जहाँ सब कुछ वेदनामय-सौन्दर्य का गान है…”मैं नीर भरी दुःख की बदली”…दुःख हो या सुख बदली छाती है तो मोर नाचता है…संवेदना की बदली छाई तो..ऊँचे पेड़ पर बैठा “नीलकंठ” सीत्कार उठा..”कहाँ-कहाँ”…अपनी प्रित को पुकारता मोर…इस लेखनी से निकले शब्द-संसार में ऐसा बसा है कि कालजयी हो गया…और वो “यामा” वो “दीप शिखा” …”अपनी मृदु पलकों से चंचल ,सहज सहज मेरे दीपक जल”…”मै दृग के अक्षय कोशों से, तुझमे भरती हूँ आँसू जल..” ..कहती लेखनी से जब किसी ने पूछा की आँसू पर लौ कैसे रखोगी…प्रकाश कैसे उगेगा…तो वो बोल पड़ी–“शुभ्र मानस से छलक आए/तरल ये ज्वाल मोती…अश्रु ये पानी नहीं है “… किसी ने परिचय पूछा तो बोली–“धुप सा तन, दीप सी मैं ! “…लेखनी से यूँ तो काले-निले रंग ही अक्षर बनते हैं…लेकिन इस संवेदना-मूर्ति से ऐसे हरे-भरे अक्षर निकले की एक सतयुगी-अरण्य निर्मित हो गया…जैसे “कांगड़ा-चित्रवाली”…ये देखो—फुदकती भागती वो “सोना हिरनी”…उफ़…उसके मुख से रक्त की धार अभी भी बह रही है…बेचारी…मनुष्य के जिह्वा और मस्तिष्क के चटोरेपन ने कितने वन-वनचर चबा लिए…लेखनी से छलकी एक रक्तिम-बूँद हाशिये पर पड़ी है अब तक…”सबिया”/”बिट्टो”/”घीसा”/”अलोपी”/”बबलू”/” और एक “अभागी स्त्री” ….ये सब लेखनी के सहारे उस शब्द-नगर की पगडंडियों पर टहल रही हैं जो हमारी सभ्यता /हमारे विकास ने निर्मित किया है…”घर में पेड़ कहाँ से लाए/कैसे यह घोंसला बनाए/कैसे फूटे अण्डे जोड़े/किससे यह सब बात कहेगी…अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी..? “….ये लेखनी न होती तो “वो” चिड़िया “चीलों” का शिकार हो गई होती..दैव ! अक्षरों ने उसे नीड़ दे दिया…। लेखनी अथक चलती रही ..कोई अस्सी बरस तक…” मैं अनन्त पर लिखती / जो सस्मित सपनो की बातें…उनको कभी न धो पायेंगी…अपने आँसू से रातें…” ।।
हाँ यह भी सत्य सिद्ध हुआ..कोई स्वप्न न धुला.. एक नयन से दूसरे, दूसरे से तीसरे..आज सहस्र-नयन उसी स्वप्न से सस्मित हैं…!
आज भादो के मेघ गरज रहे हैं…लेखनी थकी सी है… आह ! निद्रा..बरसों से बिछड़ी निद्रा..आ जा… लेखनी के दृगञ्चल भारी होने लगे..” ची-ची ..ची-ची”… “अरे ! गिल्लू ! तू ! ..इतने बरस बाद !..लेखनी ने उस नन्ही गिलहरी को देखा..बरसो हुए थे इसे जंगल में खोए.. “गिल्लू” ने अपने नन्हे हाथों से लेखनी की काष्ठ-उँगलियाँ धर लीं.. जैसे जाने से पहले धरी थीं उसने सहारे की आशा से.. अबकी बार सहारा देने के लिए… “चलो..मेरे साथ..अपने ही बनाये हुए शब्द-वन में..वही जी भर कर सोना..हम सब तुम्हारे बिना उदास हैं..और हम जानते हैं तुम हमारे वियोग में वर्षो तक चलती रही..अब बस … चलो माँ चलें !…” गिल्लू ने अपनी गोल गोल सजल आँखों से जब ये कहा — तो .. लेखनी ने संसार की और देखा और मन्द स्वर में दुहरा उठी—-
” क्या अमरों का लोक मिलेगा/
तेरी करुणा का उपहार/
रहने दो हे देव ! अरे…यह.. मेरे मिटने का अधिकार…..
मेरे मिटने का अधिकार…” ।।
11 सितम्बर 2016