“एक पत्थर का दर्द”

( किशोर कुमार धनावत )
पत्थर हूँ मैं,
चोट खाता हूँ पर,
बोलता नहीं|।
पैर रखते,
आगे बढ़ जाते हैं,
डोलता नहीं।
सुनता हूँ मैं,
उन लोगो की बातें,
शान्त रहता।
वापस आते,
ठोकर मारते हैं,
सब सहता।
दुनियां वाले,
सब देखकर भी,
चुप रहते।
भूल जाते हैं,
उसकी मदद को,
हंसी करते ।
नहीं बनना,
स्वार्थी कभी भी मुझे,
आदमी जैसा।
बेजुबान हूँ,
मिलेगा तुझे वैसा,
जैसे को तैसा।
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रायपुर, (९-९-२०२१)