ऐसे थे चन्द्रशेखर : का हाल बा! कुछ खइबे! कवनो दिक्कत परेशानी!
(जयशंकर गुप्ता)

कई बार बहुत मुश्किल हो जाता है किसी ऐसी शख्सियत के बारे में कुछ लिखना जिसके बारे में आप बहुत कुछ जानते हैं। ऐसे ही लोगों में से थे, हमारे, हमारे घर के समाजवादी नेता, पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर। बचपन से उन्हें देखते सुनते आए। पिताजी, समाजवादी नेता विष्णुदेव से करीबी संबंध होने और गांव घर भी बेहद करीब (कहने को हमारा घर कठघराशंकर, तब के जिला आजमगढ़ (अभी मऊ) और उनका इब्राहिम पट्टी जिला बलिया में था लेकिन दूरी चार पांच किमी की ही थी) होने के नाते आना-जाना लगा रहता था। हालांकि जब हमने होश संभाला, चंद्रशेखर जी कांग्रेसी हो गये थे, युवा तुर्क कांग्रेसी। और हम लोग खांटी लोहियावादी सोशलिस्ट।
1977 में एक साथ जनता पार्टी में होने के बावजूद, यूपी विधानसभा चुनाव के समय हमारे राजनीतिक रिश्तों में थोड़ी कड़वाहट भी आ गई थी। पिता जी के यूपी जनता पार्टी संसदीय बोर्ड का सदस्य होने के बावजूद उनका टिकट काटकर एक कांग्रेसी को दे दिया गया था। पिता जी बागी उम्मीदवार हो गये थे। चंद्रशेखर जी के लिए वह चुनाव प्रतिष्ठा का सवाल बन गया था। वह हमारे यहां अंतिम समय पर अपने घर से सायकिल चलाकर आए। रामधन जी के साथ अलग अलग गांवों में घूमे और नतीजा, हम लोग जीता हुआ चुनाव कुछ सौ मतों से हार गये। लेकिन बाद में हमारे पारिवारिक और राजनीतिक संबंध पूर्ववत बने रहे। 1985 में पिता जी को चुनाव जिताने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
पत्रकार के रूप में भी हमारे संबंध घरेलू एवं पारिवारिक ही रहे। जब हम पटना में रविवार के साथ जुड़े थे, चंद्रशेखर जी जब भी बिहार आते, हम अधिकतर बार उनके साथ यात्रा दल में होते। यह तस्वीर उस समय बिहार के किसी दौरे की है जिसमें एक ढाबे पर खाट पर बैठकर चंद्रशेखर जी और साथ के लोग चाय नाश्ता कर रहे हैं। साथ में स्व. हरिकिशोर सिंह, बिहार विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष स्व.त्रिपुरारि बाबू , चितरंजन गगन जो उस समय बिहार छात्र जनता के अध्यक्ष थे और अभी राजद के वरिष्ठ नेता हैं और कोने में हम यानी जयशंकर गुप्त।
दिल्ली में भी उनसे मिलना जुलना होता था। कई बार संसद के केंद्रीय कक्ष में भी मिल जाते। बात हमसे हमेशा भोजपुरी में ही करते। जब भी मिलते, का हाल बा! कुछ खइबे! कवनो दिक्कत परेशानी! हमारे कहने पर कि नाहीं, सब ठीक बा। वह मुस्करा देते लेकिन कुछ खिलाते जरूर। एक बार, संभवत: 1990 के आसपास हमारे पिताजी से उन्होंने शिकायती लहजे में कहा था कि कभी मिलता और कुछ कहता ही नहीं! तब पिताजी ने मुस्करा दिया था। हमारे साथ एक गलत आदत सी जुड़ गई है कि विपक्ष में रहते जिनके हम बहुत करीब होते या लगते रहे, उनके सत्तारूढ़ होने के बाद उनसे अपने पत्रकारीय दायित्वों के अलावा उतनी ही दूर हो जाते थे। यह क्रम आज भी जारी है। शायद बचपन से संस्कार ही कुछ ऐसे मिले!
बहरहाल, आज अध्यक्ष जी, हमारे अपने चंद्रशेखर जी की 13वीं पुण्यतिथि है। चंद्रशेखर जी और उनसे जुड़ी बहुत सारी बातें याद आ रही हैं जिन पर फिर कभी विस्तार से! यकीनन चंद्रशेखर जी ‘भारत रत्न’ के हकदार हैं लेकिन उन्हें भारत रत्न से अलंकृत करनेवाले का दिल भी तो उनके ही जितना बड़ा होना चाहिए। वह भारत रत्न तो थे ही, इसमें भी कोई शक! सादर नमन। शत शत नमन।


