मरियम के पुत्र येशु की स्मृति विशेष…
( ओमा The अक् )
“और युगों पूर्व–
गुरुकुल में खड़े “सत्यकाम” से ऋषियों ने सन्देह से पूछा–“तो तुम्हारा पिता कौन है?”
सत्यकाम ने आत्मविश्वास से उत्तर दिया–” मुझे नहीं पता कि कौन पिता है..मुझे केवल मेरी जननी का पता है..जिसका नाम है “जबाला”..तथा मैं हूँ “सत्यकाम जबाला”…अपनी माता का पुत्र!”
और युगों पश्चात-
सुली पर लटके हुए तीन शरीरों में एक चैतन्य-वाणी ने दयालुता से कहा-
“हे परमात्मा!इन्हे क्षमा करना…ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं!”
ये अंतिम वाक्य थे जिसकी गूँज नीचे खड़ी “ज़रुसलम” की जनता तक पहुँची… और बस…थोड़ी देर में उसका सर ऊपर आकाश से झुक कर धरती की ओर झूल गया…उसके वक्ष पर ठुकी हुई कीलें उसके रक्क्त की धार को उसके पैरों तक पहुंचातीं… जहाँ से वो पवित्र-रक्क्त मलिन और भयभीत भूमि पर टप-टप कर टपकता हुआ यूं प्रवाहित हो रहा था..जैसे शेषशय्या पर शयन करते भगवान् विष्णु के पाँव से निर्झर-गङ्गा का प्रवाह हो..!
वो रात “दिसम्बर” की सबसे ठण्डी और अँधेरी रात थी…जब उस बूढ़े-ज्योतिषी ने अम्बर से टूट कर “यूसुफ़” की शरणस्थली.. एक अस्तबल पर गिरते एक तारे को देखा था…तब उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि देवदूत स्वर्ग से उतर कर भूमि पर आए हैं..और उस पवित्र-पुत्र को जन्म देते हुए संसार की सबसे महान-माँ के दर्शन करने को आतुर हों..जो अपने चीत्त के कोरे-कुँवारे-पृष्ठ पर अपने रक्क्त से एक अमर-शब्द लिखने जा रही थी–“येशू”…!
वह केवल अपनी माँ को जानता था… मित्र उसे छेड़ कर पूछते — “तेरा पिता कौन है?”….वो मुस्कुराकर कहता–“मेरी माँ है… केवल माँ!”…सखा उपहास करते हुए कहते–“केवल माँ!…मतलब बिना पिता के…मतलब “कुँवारी-माँ”..!”…वो भी हँसता और कहता–“हाँ…माँ तो कुँवारी ही होती है!”…और फिर दौड़ने लगता भेड़ों के मासूम बच्चों के साथ जो झुण्ड में केवल अपनी माँ को पहचानते थे…!
उसकी माँ ने उसे गोद मे उठा लिया जब वो थक कर जंगल से लौटा… और उसके कोमल-कोमल पाँवों को जल से धो कर…अपने निष्कलंक-श्वेत-अञ्चल से पोछने लगी…और चुम्बन देते हुए कहने लगी–“मैं जानती हूं..तेरे पाँव किस पवित्र राह पर पड़ने वाले हैं…इन पर तनिक भी धूल मैं न लगने दूँगी… तू मेरा पुत्र है…मेरी आत्मा का पुत्र…मेरे ईश्वर का पुत्र..!”
“आहह! कैसा सुन्दर है न यह वाक्य…ईश्वर का पुत्र…हाँ मेरी माँ ने कहा है.. तो यही सत्य है..मैं ईश्वरपुत्र हूँ…पवित्र ईश्वर का पवित्र पुत्र!”..यह सोच कर “येशु” मुस्कुरा दिया…!
“फ़सह” के पर्व पर जब जोसफ़ और उसकी पत्नी और येशु कुछ भाई-बहन “ज़रुसलम” के मंदिर घूमने आए…तो भीड़ में येशु लापता हो गया…बारह साल का नन्हा येशु कहाँ होगा..कोई चोर न उठा ले…अनेक आशंकाओ में व्यथित जोड़े को उनका बालक मिला भी तो कहाँ… ज़रुसलम के उसी पवित्र मन्दिर में जिसके दर्शन को वो “नासरत” से यात्रा कर के आए थे…अचरज यह कि वह बालक बड़े-बड़े पण्डितों से बहस कर रहा था…माँ ने लाड भरे रोष में पूछा–“हम तुझे कहाँ कहाँ ढूँढ रहे थे और तू इस मंदिर में मिला!”…येशु ने मुस्कुरा कर माँ को याद दिलाया–“तुम व्यर्थ मुझे यहाँ-वहाँ ढूँढ रही थी…तुम्हे पता होना चाहिए था कि मैं अपने पिता के घर पर ही मिलूंगा..!”…माँ ने उसकी लम्बी-बरौनियों से झाँकती कृष्ण-विवर सी पितलियों में देखा और भीगी आंखों से मुस्कुराने लगी..।
भीड़ उसे घेर कर खड़ी…निराश और रुग्ण भीड़…तृषित और भयभीत भीड़… येशु उन उदासियों के मध्य एकमात्र पवित्र मुस्कुराहट बन गया…हाँ! मुस्कुराहट उदासियों की मसीहा है..यह किसी भी मुर्दा दिल को धड़का सकती है..यही होता है..यही हुआ…और तब भीड़ उद्घोष करने लगी…”मसीहा आ गया…मसीहा आ गया…!”…और उस पवित्र-मुस्कुराहट ने कहा–” मैं मसीहा नहीं हूँ! मैं पुत्र हूँ! मेरी माँ का पुत्र! उसकी आत्मा का पुत्र! परमात्मा का पुत्र!”
यहूदी-शास्त्रियों के ललाट पर भय से उतपन्न क्रोध की लकीर गहरी होने लगी थी…वो “गम्भीर-पंथ” के प्रचारक थे…पंथ गम्भीर होते हैं…ये कौन आ गया है जो गम्भीरता को मुस्कुरा कर समझा रहा है…जो भूमि पर रेंगने वालों को आकाश के स्वप्न दे कर पंख उगा रहा है..ये कौन है जो चमत्कार पर चमत्कार करता जाता है…एक रोटी और एक मछली से हाज़ारों को भोजन कराता है…कोढ़ी को सुंदर करता है..मुर्दे को जिलाता है… ये कौन है जिसकी माँ कुँवारी थी…और फिर भी “पवित्र”…ये कौन है जिसका पिता परमात्मा है..!
विभा टहल रही थी…प्रभा की प्रतीक्षा में…येशु भी साथ ही साथ टहल रहा था…उसने बालपन में ही देख लिया था…भोर से पूर्व का गहरा-अंधकार…अंधकार के वक्ष से फूट कर बहती लोहित-अरुणिमा..एक लघु-अंतराल के पश्चात दहकते सूर्य का आगमन…येशु भीतर आया…अपने अनुयायियों को सुषुप्त देख कर दोहराने लगा–“जागो!जागो!जागो!..यह समय अन्त और प्रारम्भ की संधि का है..अब न चेते तो कब…क्या मेरे जाने के बाद!”
भोर के साथ-साथ भीड़ का कोलाहल भी गूँजने लगा…लोगों के हाथ मे माशालें थीं और भाले…ये नास्तिक-रोमन-सिपाही थे…जिन्हें किसी भी सम्प्रदाय में विश्वास नहीं था…किन्तु “सत्ता के सम्प्रदाय” में अटूट आस्था थी…विडंम्बना यह है कि सत्ता की आस्था प्रत्येक उस आस्था के दासत्व को अभिशप्त है जो उसे स्थापित रखने और विस्तृत होने में सहायता करे.. यही कारण है कि रोमन उन यहूदी पंडितों के समूह के साथ चलने को बाध्य हो गए जो वास्तव में उनकी दृष्टि में मूर्खों का कुटिल समूह था..पर कुटिलता भला पावनता को चिंहति कैसे!…तभी भीड़ से निकल कर येशु का एक साथी आया और उसने अपने प्रिय को चूम लिया… “येहूदा!..तुमने मुझे चूम कर किसे संकेत किया!”..मुस्कुरा कर येशु ने पूछ लिया…या कदाचित बता दिया।…येहूदा की आँख में अपराधबोध झलका ही था कि दूर कहीं मुर्गे ने बांग दे कर उजाले के द्वार खोलय दिये..!
“पिलातुस” समझदार था…राजनयिक होने पर भी…सो उसने येशु की आंखों में चमकती उस अग्नि को देख लिया था जिसकी ज्योति इतिहास में सहस्राब्दियों पार जाने वालीं थीं… उसने येशु से कहा –” तुम एक बार कह दो की तुम परमात्मा के पुत्र नहीं…और तुम मुक्त!”…येशु ने करुणा के साथ उत्तर दिया—“तुम भी जानते हो मैं “पुत्र” हूँ!”…पिलातुस नास्तिक था किन्तु अंधा-बहरा नहीं…उसने इतनी निर्भीकता का दर्शन कभी नही किया था…उसे पहलीबार अपराधबोध हो रहा था…उसने एक युक्ति लगाई…और रूढ़िवादियों को एकत्र किया और उनसे कहा–“यहाँ तीन अपराधी हैं…चोर, हत्यारा और ये ईशनिंदक.. तुम लोग कहो इनमे से किस एक को मैं जीवनदान दें दूँ…?”…उसने मन मे विचार किया कि इन दो क्रूर अपराधियों की तुलना में ये बिचारा तो कुछ भी नहीं अतः इसे जीवनदान मिल जाएगा…किन्तु ऐसा न हुआ…रूढ़िवादियों ने एक स्वर में कहा—“उस बर्बर हत्यारे को मुक्त कर दिया जाए…किन्तु इस ईशनिंदक को कत्तई नहीं!”…पिलातुस बेबस हो गया…और उसने भारी-मन से आदेश दिया—“इन्हें ले जाओ…और सूली पर मरने की घड़ी तक के लिए टाँग दो..!”
नासरत या येरुशलम… लगता था सारी मानुष्यता ही उस मार्ग के समीप इकट्ठी हो गई थी जहाँ से आप अपनी सलीब उठाए..लहूलुहान… येशु घिसटता जा रहा था…सिपाही लगभग प्रत्येक डग् पर येशु को कोड़े मारते…रास्तों पर इकट्ठी “जड़-मानवता” अपने प्रतीक के रूप में भूमि पर पड़े पत्थर उठाती और उस जीवित-विद्रोह के उपर फेंकती जो उनकी मृत-सहजता को अमृत करना चाहता था…कौन मरघट जीवित लोगो का स्वागत करता है!
स्वाबलंबन से उपजा विद्रोह अपनी अर्थी भी स्वयम् ही उठाता है…वह मर कर भी किसी से उपकृत नहीं होना चाहता…और यहाँ तो एक ऐसी देह मिटने को थी जिसे एक कुंवारेपन ने जन्म दिया था…तो उसे उसी कुंवारेपन की मृत्यु का भी वरण करना था…लहुलुहान-देह जिसमे प्यास थी एक घूँट जल की…कोई हो जो इस “मरते-चिकित्सक” के कंठ को गीला कर दे…सिपाहियों के भय से कोई नहीं बढ़ता है…येशु के पाँव लड़खड़ाते हैं कि तभी “जूडा” पानी लिए आ जाता है…घूँट भर जल मसीहा के कण्ठ से उतरता है और एक उम्र का ऋण उतर जाता है जूडा के सर से…एक इतिहास प्रसाद की तरह उसकी हथेलियों से लिपट जाता है…येशू पर कोड़े बरसने लगते हैं…और मानुष्यता के आवरण में लिपटी असुरता निर्वस्त्र होती जाती है।
तीन-पाँच के सुन्दर अनुपात पर बनी सुली…रस्सियों से बँधी पवित्रता को धरती से आकाश की ओर उठाने लगी…और उठाने लगी उन सरों को भी जो अब तक मिट्टी में धँसे हुए थे!..सलीब तन कर खड़ी हो गई क्षितिज के समक्ष…जैसे दो-शब्दों के मध्य कोई मौन तन कर खड़ा रहता है…या हृदय के दो-स्पंदनों के मध्य एक अतिसूक्ष्म विराम…येशु भी आज धरती और आकाश के मध्य संधि का विराम बन कर खड़ा था!
रोम के अपरचित-सैनिकों में एक सीढ़ी से सूली पर चढ़ा… और येशु के घायल पाँव छुए…फिर एक लोहे की मोटी कील उन पैरों में बड़ी निर्दयता से ठोंकने लगा…उसने येशु की ओर देखा वो शरीर की पीड़ा में कराह रहे थे…किन्तु आँखों से उस सैनिक के हाथ सहला रहे थे जो लोहे के भारी हथोड़े को उठाए कदाचित थक सा गया था…वो नास्तिक-सैनिक पहली बार प्रेम की अनुभूति कर रहा था…वो आस्तिक हो रहा था!
भीड़ अब भी निन्दा और ममता के कोलाहल में फँसी हुई थी…आकाश पर “कृष्ण-मेघ” अवतरित हो चुका था…सुली पर हाथ-पाँव में ठुकी हुई किलो के सहारे रक्तिम-मस्तक पर काँटो का मुकुट धारण किये परमात्मा का वो पुत्र लहू-लहू मृत्यु की ओर बढ़ रहा था…पीड़ा असहनीय हो चली थी…उसने “कृष्नाकाश” की ओर याचक-दृष्टि डाली और लोमहर्षक-स्वर में बोल उठा–“मेरे पिता! हे परमात्मा! इन्हें क्षमा करना…ये नहीं जानते..ये क्या कर रहे हैं!”
भीड़ ने ये स्वर सुने…भीड़ में खड़े उन रोगियों ने सुना जिनको छू कर चंगा किया था मसीहा ने…भीड़ में उस मुर्दे से जीवित हुए बालक ने यह स्वर सुना जिसे छू कर ज़िन्दा किया ज़िन्दा किया था इस मसीहा ने…भीड़ में उन सैनिकों ने यह स्वर सुना जिन्होंने कोड़े बरसाए थे और कीलें ठोंकी थीं मसीहा के हाथ-पाँव में…उन भेड़-बकरियों ने भी यह स्वर सुना…केवल उन यहूदी-पण्डितों और रूढ़िवादी संभ्रांतों को यह स्वर नहीं सुनाई दिया…कदाचित यही उनका दण्ड था!
मेघ बड़ी विकराल-ध्वनि में गरजे…सौदामिनी लपक कर पहाड़ी पर गिरने लगी…येशु ने अंतिम बार सर को उठाया…और ज्वर-पीड़ित-बालक की भाँति बिलख कर कहने लगा–“हे परमात्मा! मेरे पिता! क्या तुमने भी आज मुझे त्याग अकेला छोड़ दिया!”…धड़ाम! सहसा एक बिजली गिरी!..सहसा वो निर्भीक-मस्तक आकाश से भूमि की ओर झुक गया…प्राण सजल नेत्रों से टपक कर नीचे गिरे… भूमि पर नहीं..अपितु उस श्वेत-पवित्र-आँचल में जिसने अपनी कुँवारी कोख से इस प्राण को देह में स्थापित किया था…हाँ! ये मरियम थी! जो निरन्तर अपने विद्रोह की पैदाइश… अपने विद्रोही-बालक के पीछे-पीछे वैसे ही भागती आई थी जैसे वन में नन्हे-शावक के पीछे भागती हुई सिंहनी आती है!..वो चुप थी निरन्तर…क्यों कि उसका विद्रोह उसके बालक के कंठ में स्थित हो गया था…जैसे गुड़हल की मधुरता मधुमक्खी के छत्ते में इकट्ठी हो जाती है!
मरियम अपने अञ्चल में वह पवित्र-प्राण गठियाये…उस देह को अपनी गोद मे उठाती है…जो अभी अभी सूली से उतारा गया है…वह गर्वित है कि उसके पुत्र ने मृत्यु भी ऊंचाइयों पर चुनी…वह व्यथित है कि वह अपने पुत्र को कब्र तक ले जाएगी…वह चमक रही थी अपने येशु की लाश को गोद मे उठाए चलते हुए उस रक्तस्राव को देख कर जो वास्तव में मरियम का अपना रक्क्त था…जो आज तक के इतिहास का सबसे बड़ा चमत्कार कर रहा था…जो आज वह ऋण चुका रहा था जिसे देवता भी न चुका सके…येशु आज मरियम के रक्क्त का ऋण चुका रहा था…उसने माँ से मिली काया की चादर माँ को वापस लौटा दिया था जस की तस…उसने माँ से मिले विद्रोह को एक वैश्विक-विद्रोह बना दिया था…उसने कुमारी-मातृत्व के लांछन को पवित्रतम-माता का स्वरूप दे कर वह किया जो इतिहास में किसी पुत्र ने किसी माँ के लिए नहीं किया था…मरियम अपने मातृ-ऋण से उऋण हो चुके पवित्र-बालक के लहूलुहान-पाँव चूमती है जैसे बचपन मे चूम लेती थी..किन्तु अबकी बार एक अंतर आ चुका था…अबकी बार यह चुम्बन मात्र वात्सल्य का चुबंन न हो कर अगाध-श्रद्धा और समर्पण का चुम्बन बन गया था अपने उस पुत्र के लिए जो सचमुच अपने पिता जितना बड़ा हो गया था आज!!
25 दिसम्बर ©