“सत्याग्रह” की गूंज उठी है
मेरी कलम से…
आनन्द कुमार
भटके हुए न्याय के लिए,
शासन को बदनाम कर रहे,प्रशासन के लिए,
गूंगी-बहरी हो चुकी व्यवस्था के लिए,
आजाद होने के बाद भी आजादी के लिए,
“सत्याग्रह” की गूंज उठी है,
“सत्याग्रह” की गूंज उठी है।
कब तक मौन रहोगे,
कब तक चैन दरोगे,
तुम्हारे बुलडोजर से छलनी हुई,
मानवता चित्कार रही है,
एक-एक ईंट जख्मी है,
जर्रा-जर्रा कांप रही है।
बेटी रोई, बेटी की गिड़गिड़ाई,
बूढ़ी आंखें तुमको समझाई,
तनिक भी तुम जतन न समझे,
खुद की नोटिस से झाड़े-पल्ले,
आखिर ऐसा किए ही क्यों,
इंसान थे, पत्थर बने ही क्यों तुम,
तनिक न सोचा, तनिक न समझा,
पल भर में सीना ताड़ दिया,
था क्या कोई अपराधी “दत्ता”,
जो तुने अपने हौसलों को मुकाम दिया।
ना शर्म करो, या ना पछताओ तुम,
पर ईश्वर तुमको ताड़ रहा है,
भले ही “योगी” तुमको माफ कर दें,
जन-जन सब जान रहा है,
शर्मिंदा है “मानवता”, “मुर्दा” तुम्हारी “व्यवस्था” है,
आजमगढ़ की धरती पुकार रही है,
“जस्टिस फार जर्नलिस्ट दत्ता” के लिए,
जिंदा समर्थन मांग रही है।