पुण्यतिथि विशेष : चरण सिंह राजनीति के चतुर खिलाड़ी
(यशोदा श्रीवास्तव)
भारत के पूर्व प्रधान मंत्री चौधरी चरण सिंह की पहचान एक अड़ियल राजनेता के रूप में रही है। कांग्रेस से अलग होने के बाद लाख कोशिशे हुई कि वे दोबारा इंदिरा जी के साथ मिल जायें लेकिन वे नहीं माने। अलग भारतीय क्रांति दल नाम से नया दल बनाया और पहले ही चुनाव में 90 विधायक जितवाकर अपनी ताकत का एहसास कराया। मात्र 27 साल की अवस्था में किसानों के मुद्दे को लेकर राजनीति में कूदे चौधरी के खाते में एक ऐसे प्रधानमंत्री का खिताब भी है जिसने अपने कार्यकाल में संसद का मुंह तक नहीं देखा।
विधायक, मंत्री, मुख्यमंत्री, सांसद और प्रधानमंत्री बनने तक उनके
राजनीतिक सफर पर गौर करें तो उनकी कार्यशैली श्रीमती इंदिरा गांधी से ही काफी हद तक मेल खाती है। अपनी पार्टी में जैसे इंदिरा जी किसी को उभरते हुए नही देख सकती थी, वैसे ही चैधरी भी अपनी पार्टी में किसी को उभरते हुए नहीं देखना चाहते थे। कर्पूरी ठाकुर से लेकर चैधरी देवी लाल और कुंभाराम आदि ऐसे कई उदाहरण भरे पड़े हैं।
1937 में पहली बार विधायक चुने जाने से लेकर सन 67 तक वे यूपी सरकार में विभिन्न विभागों के मंत्री रहे लेकिन जर्बदस्त राजनीतिक सुर्खियों में वे तब आए जब दल बदल कर तत्कालीन संविद सरकार के मुख्यमंत्री बने। चरण सिंह राजनीति में सिद्धांत के फार्मूले को कभी नहीं मानें। अपने राजनीतिक जीवनकाल में उन्होंने सात बार दल बदल की। उन्हें दलबदुलुओं का सरताज भी कहा जाता था। हालाकि उनके समर्थक चैधरी के दलबदल को दलबदल नहीं मानते थे।उनका तर्क होता था कि चैधरी ने जब जब दल बदला तब तब नए दल का सृजन किया।
मुख्यमंत्री रहते हुए किसानों के लिए किए गए उनके कई काम जनहित के रहे हैं। जैसे जमींदारी उन्मूलन तथा भूमिसुधार के कानूनों को लागू करवाने में उनकी भूमिका हमेशा याद की जाएगी। चरण सिंह सत्ता के लिए कुछ भी कर सकते थे। इसके लिए समर्थन देना व समर्थन वापस लेने की प्रथा को वे बिलकुल गलत नहीं मानते थे। इसके जवाब में उनके पास कई तर्क होते थे। यही वजह है किइनके इस राजनीतिक कार्यशैली पर किसी ने कभी सवाल नहीं खड़ा किया। क्योंकि वे सरकार गिराना व समर्थन देकर बनवाना सीधे जनसरोकार से जोड़ देते थे।
23 दिसंबर 1902 को गाजियाबाद जिले के नूरपुर गांव में जन्में चौधरी चरण सिंह को एक तानाशाह राजनीतिक के रूप में भी देखा गया। आज जो राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र की बात होती है, चौधरी के लिए यह सब बहुत मायने नहीं रखते थे।
उनकी पार्टी मेें वही होता था जो वह चाहते थे। चौधरी के इस इच्छा के खिलाफ बोलने की पार्टी के नेताओं को इजाजत नहीं थी। पार्टी में किसी भी विषय पर उनके द्वारा दी गई राय अंतिम होती थी। उस पर बहस की कोई गुंजाइस नही थी। यही वजह रही है कि उनके संपूर्ण राजनीतिक जीवन में उतार कम बुलंदियां ही ज्यादा रही है. उनकी इस कामयाबी के पीछे शायद एक बात यह रहीं हो कि उन्हें कुछ पाने के लिए लंबे समय तक इंतजार करने आता था। 1967 में यूपी में जब चंद्रभान गुप्त की सरकार बनी तब चौधरी उसमें शामिल नहीं
हुए। उन्होंने ऐसी शर्त रखी जिसे मानना आसान नहीं था। वे अपने तीन समर्थकों को मंत्रिमंडल में शामिल कराना चाहते थे. चंद्रभान गुप्त ने इसे मानने से इनकार कर दिया। बात यहीं तक होती तो ठीक था, चौधरी ने उस वक्त मेरठ के कद्दावर कांग्रेसी नेता कैलाश प्रकाश के अलावा बनारसी दास और शिवप्रसाद गुप्त को मंत्रिमंडल में न शामिल करने की भी शर्त रखी। चरण सिहं के ऐसा करने के पीछे कुछ और खिचड़ी पक रही थी. गुप्त सरकार के गठन के ठीक 18 दिन बाद ही चौधरी ने अपने 16 विधायक और समाजवादी तथा जनसंघ के विधायकों को मिलाकर संयुक्त विधायक दल की स्थापना कर मुख्यमंत्री बन गए।
उन्होंने समाजवादी तथा जनसंघ घटक के संयुक्त विधायकों के सारे कार्यक्रमों को लागू करने की शर्त स्वीकार कर ली लेकिन जब इन्ही कार्यक्रमों से एक सवा छ एकड़ तक के किसानों के मालगुजारी माफ करने की बात आई तो उन्होंने साफ कह दिया कि वे इसे पढ़े ही नहीं थे वरना सरकार बनाते ही नह। इस प्रकार चरण सिंह के वादा खिलाफी के चलते विरोधियों की पहली सरकार मात्र 11 महीने में ही गिर तो गई लेकिन चौधरी के मुख्यमंत्री बनने का सपना पूरा हो गया।
ऐसी ही गणित के आधार पर वे प्रधान मंत्री भी बनें थे। 1977 में जब विधानसभा चुनाव के बाद राज्यों में सरकार गठन की बात आई तो चौधरी जनसंघ घटक के नेताओं से गुपचुप मिलकर तीन राज्यों में अपने मुख्यमंत्री बनवा लिए। जनता पार्टी के केंद्र में बनने वाली सरकार में चौधरी की नजर गृहमंत्री के साथ प्रधानमंत्री की कुर्सी पर लगी हुई थी।
यहां भी वे जनसंघ घटक के नेताओं को मिलाकर प्रधानमंत्री का ख्वाब देख रहे थे लेकिन जब बात नहीं बनी तो आरएसएस को सांप्रदायिक कराकर कर जनता पार्टी से अलग हो गए। नतीजा मोरार जी की सरकार गिर गई। इधर मोरार जी की सरकार गिरी नहीं कि उधर इंदिरा जी के सर्मर्थन से चौधरी का प्रधानमंत्री बनने का सपना भी पूरा हो गया।
चौधरी साहब अंग्रेजी के अच्छे जानकार थे लेकिन उन्हें अंग्रेजियत से सख्त नफरत थी। उनकी खास आदत यह थी कि वे दुनिया भर के पत्र पत्रिकाओं में कृषि पर आधाररित लेख को बहुत चाव से पढ़ते थे। कृषि अर्थव्यस्था पर उन्हें चुनौती देना संभव नही था.शायद यही वजह है जिसके नाते उन्हें किसान नेता के रूप में भी याद किया जाता है


