श्रद्धांजलि विशेष डा.यूपी सिंह! रहें न रहें हम महका करेंगे, बन के कली….

संजय दुबे, स्वतंत्र पत्रकार…
पूर्वांचल के वरिष्ठ डॉ. यू. पी. सिंह आज हमारे बीच नहीं है. जिनकी याद में उनके द्वारा उनके पिता जी के नाम पर स्थापित आर. बी. मेमोरियल हॉस्पिटल में उनके सुपुत्र डॉक्टर अंकित सिंह द्वारा सोमवार को मरीजों को निःशुल्क परामर्श दिया जायेगा. ये डॉक्टर यू. पी. सिंह को दी जाने वाली सच्ची श्रद्धांजलि है. सही मामलें में वो एक काबिल डॉक्टर के साथ एक बेहतरीन इंसान भी थे. बात चीत में अक्सर कहा करते थे पैसे को उतनी ही तरजीह दो जितनी उसकी जरुरत हो. ये, उनकी फितरत थी. पैसे को आज़ाद ख्याली से ज्यादा कभी उन्होंने तरजीह नहीं दी. इसकी गवाही देने के लिए अभी पचासों ऐसे मरीज मिल जायेंगे जिन्हें उन्होंने बिना फीस देखा है. इसकी तस्दीक़ के लिए बस एक ही उदाहरण काफ़ी है. देश के एक बड़े हॉस्पिटल का बांड पेपर उनके पास सालों पड़ा रहा. जिस पर इनकी सहमति के हस्ताक्षर चाहिए थे. जिसकी न्यूनतम राशि इतनी थी कि एक बढ़िया डॉक्टर उतना सालाना नहीं कमा पाता है. उसके ऊपर इनको अपनी पसंद की रकम भरनी थी. जिसके बाद वहां पर उनको बैठना था. पर डॉक्टर साहेब ने उस पर कभी सिग्नेचर नहीं किया. उस ग्रुप को एक लम्बे अरसे तक यकीन नहीं हुआ कि ऐसा भी हो सकता है.

उनका यूं चले जाना हर किसी को अखरा. उन्हें भी, जिनको वो बहुत अजीज़ थे. उनको भी,जिन्हें उनके इल्म से रश्क था. सबसे ज्यादा अखरा उन्हें, जो उनके ऊपर, ऊपर वाले सा यकीन करते थे. सही मामले में वो अपनी फीस के लिए जहाँ चर्चित रहें वहीं, उससे ज्यादा जाँच और दवाओं के बेपनाह खर्च से बचाने के लिए भी मशहूर रहें। उनके मुरीद मरीजों की लिस्ट में शहर के जहाँ नामी गिरामी, रईस,लोग शामिल थे वहीं,आम लोग भी थे. सबसे एक सा व्यवहार. हाँ! डॉक्टर साहेब को बस एक चीज से ज्यादा एलर्जी थी, वो थी वीआईपी कैटगरी से. अगर उनके सामने कोई मरीज बतौर अफसर, रईस, वीआईपी बन के आता तो चिढ़ जाते थे. इसके चलते उन्होंने कई बार कुछ परेशानियां भी उठायी पर झुके नहीं. मेरी मुलाक़ात उनसे तकरीबन 22 साल पहले हुई. ज़ब मेरे डी. ए.वी. कॉलेज के सीनियर, बड़े भाई और मित्र ने उनसे मेरी बीमारी में मेरा परिचय कराया. उसके बाद ये सिलसिला जारी रहा. डॉक्टर साहब से कभी छठे छमासे भेंट हो ही जाती थी. उनसे मिलने के बाद ऐसा ही लगता जैसे आप किसी अपने सीनियर से मिल रहें हो. बेपनाह बातें. राजनीति से लगाए भ्रष्टाचार तक. यूरोप से लगाए लैटिनी अमेरिका तक. फिल्मों से लेकर भोजपुरी भाषा में बढ़ते प्रदूषण तक पर. मजाक -मजाक में एक बार कहें भी -“यार! लग रहा है मोदी जी मेरा विदेश जाने का रिकॉर्ड तोड़ देंगे. ” डॉक्टर यू. पी. सिंह डी. ए. वी. कॉलेज के अपने बैच के बेहतरीन छात्र रहें. उनके बैच में डी. ए. वी. कॉलेज को उप्र बोर्ड के उप्र टॉपर छात्र मिलें. जो उसी विद्यालय में शिक्षक रहे स्वर्गीय टी. एन. श्रीवास्तव के बड़े पुत्र थे. जिनका पढ़ाई के दौरान ही असामयिक निधन हो गया.
डॉ. यू. पी. सिंह ने मेडिकल की पीएमटी और सीपीएमटी दोनों परीक्षाएं पास की. केजीएमसी में एडमिशन के लिए अपने सीनियर के पास हॉस्टल में पहुंच चुके थे. तभी बी. एच. यू. के रिजल्ट में भी इनका नाम आ गया. फिर डॉक्टर यू. पी. सिंह लखनऊ से बनारस आ गए.यू. पी. सिंह मेधावी थे. तथ्यों को समझने और समझाना वो भी सहज रूप से उन्हें बखूबी आता था. अपने मरीज से उसी की जबाँ में बात करने में माहिर थे. एक बार का वाकया है, हथिनी के पास के एक मरीज पूरे मऊ में हर अस्पताल का पर्चा लिए हुए उनके यहां इलाज के लिए पहुंचे. सारे पर्चे देखने के बाद उन्होंने उनसे कहा -” कहाँ घर बा!” मरीज ने कहा -“हथिनी के लग्गे. ” डॉक्टर साहेब बोले -“बताई! आपके नदी पार कइके इहाँ ले अईले में छह महीना लग गइल. अरें! हमरों घरवा ओहरे ह. ” उसके बाद तो वो मरीज अब ज़ब भी मऊ किसी डॉक्टर के पास आते तो सिर्फ और सिर्फ डॉक्टर यू. पी. सिंह के पास. ऐसे और भी कई उदाहरण है. डॉक्टर साहब की आदत थी, मरीज ने परेशानी बतानी शुरू की नहीं कि उनकी कलम चलनी शुरू हो जाती. जैसे ही मरीज ने अपनी परेशानी खत्म की डॉक्टर साहेब ने डाइग्नोसिस बना ली और दवा भी लिख देते. ऐसा ही एक जबरदस्त वाकया और हुआ. एक बुजुर्ग मरीज आये. उन्होंने अपनी बीमारी के बारे में बताना शुरू किया और डॉक्टर साहेब ने दवा लिखनी प्रारम्भ कर दी. बुजुर्ग ने अचानक से बोलना बंद कर दिया. डॉक्टर साहेब ने पूछा -“बताई आपन परेशानी रुक काहे गइली? बुजुर्ग बोलें, का बोली आप त हमार पूरी बतियों ना सुनली अउर दवाई लिख दिहली. अब दवाई का काम करी. ” मरीज के साथ आये व्यक्ति को उन्होंने बताया कि मरीज के साथ कायदे से पेश आया जाय. मानसिक रूप से बुजुर्ग को लगता था कोई उनकी बात नहीं सुनता. उनकी तकलीफ शारीरिक रूप से ज्यादा मानसिक थी . डॉक्टर साहेब मानसिक रोग भी अच्छी तरह पकड़ लेते थे. किसी महिला का पति विदेश है उसकी अपने पति से बात नहीं हो पाती. मायके में ज्यादा दिन से रह रही है. भाभी के ताने झेल झेल मानसिक रूप से परेशान हो जेहनी तौर पर बीमार हो चुकी है. ऐसी महिलाओं के संग आये लोगों को बहुत कायदे से सही सही मामला समझा देते. एकाध दवाई लिख 15 दिन बाद आ आकर बताने को कहते. फिर मरीज घर जा के डॉक्टर साहेब के हिसाब से रहना शुरू करता. उसकी हालत में सुधार आता देख उनके घर वालों के जान में जान आती कि डॉक्टर साहेब ने बिना जाँच कैसे ये सब पकड़ लिया. जबकि कितने ओझा, सोखा इ भूत ऊ प्रेत बताते फिरते रहें. तमाम उपाय किए पर कोई आराम नहीं हुआ. डॉक्टर साहेब की एक गोली ने जो करिश्मा दिखाया वो काबिले तारीफ़ रहा.
जाहिर सी बात है डॉ. यू. पी. सिंह के मरीज बलिया, आजमगढ़, देवरिया, छपरा, गोरखपुर, सहजनवा, गाज़ीपुर,बनारस तक से आते थे उनको वैसे ही डॉक्टर के समकक्ष यहां दिखाना एक बहुत बड़ी चुनौती है. जिसके बाबत उनके सुपुत्र डॉ. अंकित सिंह जो न्यूरो साइक्ट्री में एम. डी. कर रहें है कहते है कि उनके पिता डॉक्टर यू. पी. सिंह जी ने जो बेंच मार्क स्थापित किया है उसे उससे ऊपर ले जाने के लिए कटिबद्ध है. डॉक्टर साहेब गाने के काफ़ी शौकीन थे. गला भी अच्छा था. मजरूह सुल्तानपुरी का लिखा ये गाना, लता जी के आवाज में जिसको कभी कभी वो गुनगुनाते भी थे…. सादर श्रदांजलि सहित….. रहें न रहें हम…..