लघुकथा : मम्मी का गजरेला

(शब्द मसीहा केदारनाथ)
“अरे माँ ! ये देखो …. कितनी सुंदर है न।” बेटे ने माँ को शाल दिखाते हुए कहा।
“हा हा हा …. पगला गया है रे तू । मैं ऐसे रंग अब कहाँ पहनती हूँ । अच्छा , ये बता बहू के लिए क्या लाया है ?” माँ ने पूछा।
“उसके पास तो बहुत हैं। ख़ुद भी खरीद लेती है जब दिल करता है।” बेटे ने कहा।
“बुद्धू है तू । तुझे ये नहीं पता कि एक पत्नी को प्यार चाहिए होता है । वो उपहार की कीमत नहीं देखती । मैं बूढ़ी कहाँ घर से बाहर जाऊँगी। बच्चों की देखभाल करनी है मुझे, सो मैं कर लेती हूँ। ये शाल बहू को देना। बहू ने मेरे लिए शाल खरीद दिया है और नीचे बिछाने का कंबल भी ।” माँ ने रज़ाई उठाते हुए कहा।
“ये तो सचमुच बेटी बन गई तुम्हारी …. हा हा हा।” बेटे ने कहा।
तभी ऑफिस से पत्नी भी लौटी।
“आ गए आप ? कपड़े मत बदलना अभी। माँ के लिए कुछ सामान खरीदना है।” पत्नी ने अपना बैग रखते हुए कहा।
“ऐसा क्या खरीदना है तुमको जो अभी जाना होगा बाहर ?” पति ने सवाल किया।
“लगता है माँ के पैर नहीं देखे तुमने । एड़ियाँ फट गई हैं। मेरा चेहरा दिखाई देता है बस।” पत्नी ने हँसते हुए कहा।
“बेटी ही है, मुझे ख़्याल नहीं तन का , पर इसे सब मालूम रहता है मेरी जरूरत का । चल मेरे सामने इसे शाल ओढ़ा।” माँ ने हँसते हुए कहा।
बेटे ने तुरंत शाल ओढ़ाई तो माँ ने बहू को देखते हुए उसकी बलायें लीं।
“मैंने मोम और सरसों का तेल डालकर दवा बना ली है। जुराब भी पहन लिए हैं। इस बुढ़िया का नहीं अपना सोचो …. जा इसे गोल गप्पे खिलाकर ला । तब तक मैं खाना बनाती हूँ। और गजरेला मत लेकर आना ….. मैंने बनाया है …. इसे बहुत पसंद है।” माँ ने कहा।
“तो गोलगप्पे केंसिल। मम्मी के गजरेले के सामने सब फीका है।” और बहू सासु माँ के गले से लिपट गई।