चर्चा में

“वोटों का गणित नहीं, वोटरों का मनोविज्ञान समझिए”

( अनिल भास्कर )
पूर्व सम्पादक हिन्दुस्तान

पैरों में दर्द से परेशान होकर आज दोपहर पड़ोस के यशोदा अस्पताल पहुंचा तो वहां यूपी के एक बड़े कॉंग्रेस नेता से मुलाकात हो गई। बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ, मगर बिल्कुल अनौपचारिक। (इसलिए यहां उनके नाम का खुलासा नहीं कर रहा)। उन्होंने बड़ी साफगोई से स्वीकार किया कि आने वाले यूपी चुनाव में भाजपा को हराना मुश्किल है। बोले- देखिए, दलगत प्रतिबद्धता अपनी जगह है, लेकिन सच से मुंह मोड़कर पार्टी की सच्ची सेवा नहीं हो सकती। पार्टी का ईमानदार नेता-कार्यकर्ता होने का मतलब यह नहीं होता कि झूठ के चूल्हे में लकड़ियां झोंकते रहिए।

थोड़ी खिन्नता के साथ आगे बढ़े- जनता को कब तक बेवकूफ समझने या बनाने की बेवकूफी करते रहेंगे? कॉंग्रेस और भाजपा ही ऐसी पार्टियां हैं जिन्हें आप सभी जातियों के प्रतिनिधित्व वाली पार्टी कह सकते हैं। बाकी प्रदेश के सभी दल जातीय चेहरे वाले संगठन हैं। ऊपर से सपा, बसपा, रालोद के साथ साथ कॉंग्रेस भी पार्टी नहीं, परिवार है। आज का युवा वंशवाद की राजनीति में विश्वास नहीं करता। यह सच है और इसे सबको स्वीकार करना पड़ेगा कि आज की तारीख में पार्टी सिर्फ भाजपा है। और जब आप कहते हैं कि मोदी बेईमान, भ्रष्ट है तो आप जाने-अनजाने उन सभी मतदाताओं को बेईमान बताते हैं जिन्होंने उसे बहुमत से देश का प्रधानमंत्री चुना है। इसलिए जातीय गणित से ज्यादा मतदाताओं के मनोविज्ञान को समझने की जरूरत है। यही असली सोशल इंजीनियरिंग है।

और हां, मोदी विरोध के नाम पर जिस तरह सारे विरोधी दल अपनी विचारधाराओं को किनारे रखकर एकजुट होने का प्रहसन कर रहे हैं, उसमें कहीं नेचुरल अलायंस का रंग दिखता है आपको? वे आगे कहते हैं, पहले आपने मुस्लिम तुष्टिकरण को सेकुलरिज्म का नाम दिया। अब आपके लिए सेकुलरिज्म का मतलब भाजपा विरोध है। कल को हिन्दू विरोध हो जाएगा। तो क्या हिंदुओं को विलेन बनाकर चुनाव जीतेंगे? यह नहीं चल सकता। कम से कम इस देश में ऐसी चुनावी राजनीति तो कभी सफल नहीं हो सकती।

खैर, उक्त नेताजी की फिलहाल पालाबदल की न कोई मंशा दिखी, न योजना। बातचीत अनौपचारिक थी तो दिल की बात कह गए। या कहने से खुद को रोक नहीं पाए। जाहिर है यह छोटी मुलाकात में बड़ी बात थी। फिर भी उनकी निजी राय थी। अब आप इसे कितना सही मानते हैं, कितना गलत, यह आप पर छोड़ता हूँ। फिलहाल दवा खा लूं, दर्द का क्या भरोसा, कब तेज़ हो जाए।

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