रचनाकार

लद्युकथा : बने रहो साहब

शब्द मसीहा केदारनाथ…

“अरे! अभी तो ऑफिस से आए हो, और अभी कहाँ चल दिये ?” पत्नी ने हैरानी से पूछा।

“तुम्हें तो अपनी किटी पार्टी से फुर्सत ही नहीं मिलती, कुछ दीन दुनिया के बारे में जानने की ।”

“पर ऐसा क्या हो गया, कुछ मुझे भी तो बताओ ।”पत्नी ने पूछा।

“अरे ये सरकार हमारा हक़ खा रही है रिज़र्वेशन का। अब बेटे को भी तो कोटे से मेडिकल में दाखिला दिलाना है। आज आरक्षण कैसे बचाया जाय इस बात पर मीटिंग है, वहीं जा रहा हूँ ।”

“पर सोसायटी में तो आपने नहीं बता रखा किसी को, बेटे को पता चलेगा तो वह क्या सोचेगा ? वर्षों से तो अपनों का साथ नहीं दिया आपने, जात छिपाकर बड़े बाबू ही बने रहे । उस दिन जाटव जी को भी जय भीम का जवाब दिये बिना आगे बढ़ गए थे ।”

“माफ करना, मैं कहाँ से उठकर आया हूँ भूल गया था । संघर्ष कमेटी को पैसे ही नहीं उनका साथ देने जा रहा हूँ । समझ जरा देर से आई मुझे।” पति ने कहा ।

“तुम रहने ही दो, मैं जाऊँगी …मैंने जात नहीं छिपाई, बने रहो साहब।” और पत्नी अपना बैग सम्हाले बाहर निकल गई ।

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