रचनाकार

“आशाएं”

@ अभिलाषा अग्रवाल, दिल्ली…

स्त्री का डर भी, अजीब होता है
तन की थोड़ी सी, तकलीफ़ तो,
उनके लिए,मायने ही नही रखती,
जब उन्हें सताता है, डर कि तन,
उनकी कोई बात, नही सुन रहा है।
तो उन्हें अपनी, तकलीफ़ से, ज्यादा,
भय अपने घर में फैले काम को,समेटने का होता है।
कही मुझे कुछ हो गया, तो कौन देखेगा।
गैस का सीने में फैलता, दर्द भी,
उन्हें संदेह कराता है,हृदय गति रूकने का,
और वो उतनी ही, गति से,शुरु कर देती है।
खाना बनाना, कही बच्चे, भूखे ना रह जाए।
कपड़े रख दूं, अल्मारी में, सलीके से,
कुछ दिन तो, तह चल ही जाएगी।
ये सब्जियाँ बना लूं, आज बाद में सब फैक देगे,
धूल हटा देती हूँ,घर की एक हफ्तें तो साफ रहेगा।
अरे ये मलाई का घी भी बचा है,निकालने को,
सर फट रहा है कही दिमाग़,फट ना जाए।
घर के सारे काम निपटा कर,थक के चूर होकर,
सोचती है अब कुछ हो जाए, सोते तो परवाह नही।
अब दवाई,लेकर आराम कर लेती हूं।
जिसकी उन्हें जरुरत, बहुत पहले थी।
और जब नींद लेकर, उठती है तो,सारे दर्द नदारद।
फिर से लग जाती है,अपने काम में,
स्त्री का डर सच में अजीब होता है।

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