जिद और जुनून ने बना दिया ‘दरख़्तों का देवता’….मिलिए अद्भुत पर्यावरण प्रेमी से
(विजय कुमार गुप्ता)
जीवन के प्रारंभ से पहले और अंत के बाद भी जो सिर्फ इंसान के लिए त्याग करता है, वो है वृक्ष। अतिशयोक्ति नहीं अगर वृक्ष को बलिदान का पर्याय कहा जाए तो। अफसोस कुदरत की मार झेलने के बाद भी इंसान इसकी अहमियत नहीं समझ पाया है, लेकिन कुछ लोग हैं जिनके उम्र का अनुभव भले ही कम है लेकिन गंभीरता बहुत ज्यादा।ऐसे मुट्ठी भर लोगों की ज़िद ही है, कि पतझड़ के मौसम में भी हरियाली का दामन और दमक रहा है।


बनारस से गोरखपुर वाया मऊ जाते वक्त रास्ते में जब ठंडी हवा का झोंका आपके चेहरे को चूमने लगे, मन, दमभर ताज़ी सांस खींचने को मचलने लगे तो समझिए मुट्ठी भर कुदरत के रखवालों की दुनिया में से एक के करीब आ गए हैं आप।
वैसे ये बहार यूं ही नहीं आई है। इसके पीछे एक ज़िद की हद तक का जुनून काम करता है। कोपागंज, घोसी, दोहरीघाट, इंदारा, मऊ के किसी भी गली, मोहल्ले, मैदान, स्कूल, बस स्टैंड समेत कोई ऐसा जगह नहीं है जहां के दरख्त इस दीवाने की दास्तान न सुनाएं। कुदरत के प्रेम में दीवाने हो चुके इस युवक का नाम है रितेश चौरसिया। इस नेक काम में उसका साथ देता है कुदाल। ये कुदाल रितेश के देह का जेवर है।साल 2005 से जून 2020 तक रितेश ने हजारों पौधे लगाए। लॉक डाउन में भी पौधों से यारी कम नहीं होने दी। जिस उम्र में बच्चे पेड़ के पीछे छुपनछुपाई खेलते हैं, उस उम्र में रितेश पौधे लगाकर धरती का श्रृंगार करना शुरू कर चुके थे। उनके साथ छोटे भाई राजन चौरसिया भी बखूबी साथ निभा रहे हैं। दोनों भाई पौधे लगाकर ग्लोबल वार्मिंग के असर को कम करने और पर्यावरण की सुरक्षा का संदेश देते हैं । पिछले 15 साल में कोई दिन ऐसा नहीं बीता जिस दिन इन्होंने कोई पौधा ना रोपा हो।
पर्यावरण के प्रति समर्पण की कहानी जब संयुक्त राष्ट्र संघ पहुंची तो बान की मून ने भी छोटी उम्र के रितेश की बड़ी उपलब्धि को और ऊंचाई दी । मून ने रितेश को प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया। इस सम्मान ने 28 साल के रितेश की पहचान बदल दी। लोग अब इस रितेश को ‘दरख्तों का देवता’ कहते हैं।
खास बात ये है कि रितेश के लगाए गए पौधों में अधिकांश पौधे धार्मिक महत्व के होते है इसलिए इसे कीड़े मकोड़ों से बचाने के लिए लोग खुद कवच बन जाते हैं। दोनों भाई पौधे लगाकर खानापूर्ति नहीं करते हैं बल्कि उनकी देखभाल भी करते हैं। यही वजह है 96 फीसदी पौधे सुरक्षित हैं। पर्यावरण का ये प्रहरी आज भी पौधों के लिए तरसता है क्योंकि न सरकार आर्थिक मदद देती है न संस्थाएं। पौधारोपण जैसे पवित्र कार्य करने वाले दोनों भाइयों को फर्क नहीं पड़ता कोई मदद करे या न करे। वो अपनी मुहिम जारी रखेंगे। वो जेब से भले फकीर है, लेकिन दिल के अमीर हैं, बहुत अमीर।


