रचनाकार

लद्युकथा : दरवाजा खोल

( शब्द मसीहा केदारनाथ )

बहू-बेटे और बेटियाँ पने-अपने घर को गए थे। गगन की तबीयत भी अब ठीक नहीं रहती थी। घर में अकेला था । पेंशन से गुजारा हो रहा था । कामवाली चौका बर्तन खाना कर जाती । असली मुश्किल तो तब होती जब उसे चावल या खिचड़ी खुद बनानी होती और डॉक्टर ने उसे चावल खाने को मना किया हुआ था।

आज न जाने क्या सोचकर अपनी पुरानी डायरियों को खोलने का मन हुआ । सान 1995 की डायरी खोली तो कुछ पन्ने पलटे । रेखा के नाम कुछ लिखा था ….. वह उसे पढ़कर मुस्कुराया।

“पागल लड़की …. पुलिस में ज़िंदगी बर्बाद कर ली।” वह बुदबुदाया।

आगे पलटा तो पत्नी के नाम कुछ लिखा था । पढ़ा और डायरी को सीने से लगा लिया । दो आँसू टपके, जिन्हें कुर्ते के बाजुओं से पोंछा और इसी उपक्रम में डायरी हाथों से छूट गई ।

डायरी को उठाया तो पिछले पन्ने पर एक फोन नंबर लिखा था और दिल बना हुआ था । याददाश्त अच्छी थी सो याद था कि ये नंबर रेखा का है। सिरहाने से मोबाइल उठाया और नंबर मिलाया । घंटी बजती रही मगर किसी ने फोन नहीं उठाया।

“लगता है , नंबर बदल गया ….. ज़िंदगी ही बदल गई तो नंबर बदलने में क्या है।” वह बड़बड़ाया ।

शब्द मसीहा केदारनाथ

ठंड लग रही तो चाय पीने को मन किया और रसोई में जाकर गैस चालू कर चाय उबालने को रख थी । अभी अदरक कूट ही रहा था कि कमरे से फोन की घंटी की आवाज़ आई ।

गगन ने कमरे में जाकर फोन उठाया।

“हैलो! कौन बोल रहा है ?”

“जी मैं गगन बोल रहा हूँ ।”

“बता क्या आग लग गई ? किसलिए फोन किया ? कहीं मर्डर हो गया क्या ?” उधर से भारी सा स्वर सुनाई दिया।

“मैंने रेखा जी को फोन लगाया था जी …. आप कौन?” गगन ने कहा।

“मैं कटरीना न बोल रही , रेखा ही हूँ । जल्दी बता …और भी भतेरे काम हैं मेरी जान को ।” रूखा सा जवाब मिला ।

“रेखा ! मैं गगन बोल रहा हूँ , तुम्हारा दोस्त ….गगन , याद आया कुछ ?” गगन ने कहा और फोन कान पर लगाए रसोई में आ गया ।

अब रेखा तो जैसे चक्र ही गई थी । पच्चीस-छब्बीस साल पीछे जा फटका था इस आवाज़ ने ।

“कैसे हो तुम? बच्चे और परिवार तो ठीक है ? आजकल कहाँ हो ?”

“परिवार बनाने वाली तो हाथ छुड़ाकर चली गई, और बच्चे उद गए अपने-अपने घोंसलों में । मैं तो अभी जगत पुरी में ही रहता हूँ। घर जरूर बदल लिया है…. अब डॉक्टर मीना के घर के पीछे रहता हूँ ।” गगन ने कहा ।

“आज कैसे याद किया ?” रेखा ने पूछा।

“अरे! सब बढ़िया है । न आग लगी न डकैती पड़ी , न झगड़ा हुआ । बस एक डायरी हाथ लगी और उसमें तुम्हारा नंबर मिला …. दिल ने कहा कि शायद तुमसे बात हो जाय ….सो किस्मत का दांव चल दिया ….और देखो नंबर लग भी गया ….इस अकेले बदकिस्मत का ।” गगन ने कहा ।

“बदकिस्मत क्यों? तुमने तो शादी भी की , बच्चे भी हैं …और …. ।” रेखा कहते हुए रुक गई।

“और क्या तुमने घर नहीं बसाया ?” गगन बोला।

“घर बसाने और दिल बसाने का फर्क तुम क्या जानों गगन ।” रेखा का स्वर काँप रहा था ।

“तो फिर मुझे मना क्यों किया था शादी के लिए जब कोई और पसंद ही नहीं था ?” गगन ने पूछा।

“तुम मुझे पसंद थे पर ….. जिसे तुम भाभी कहते थे उसे पसंद नहीं थे और प्रेमविवाह का नतीजा मेरी बड़ी बहिन घर बैठकर भुगत रही थी , इसलिए घर वालों ने तुम्हें मना कर दिया । और जब तक मैं बगावत की हिम्मत जुटा पाती तुम शादी कर चुके थे ….. मैंने तुम्हें भुला दिया सदा के लिए ….. पर भुला नहीं सकी ।” रेखा ने कहा।

“कहाँ हो तुम ?”

“मेरी पोस्टिंग यही जगतपुरी थाने में है।” रेखा बोली।

“चाय बना रहा हूँ , एक कप पानी और डालता हूँ । जब तक चाय में उबाल आए तू आ जा ….. बूढ़ों के इश्क पर लोग शक नहीं करते ….. आ रही है न ।” गगन बोला।

“साले! फोन कान पे लगा रखा है …. जल्दी से दरवाजा खोल ।”

गगन ने फोन फेंका और किसी नौजावन की तरह फुर्ती से दरवाजे की तरफ लपक लिया जैसे नई ज़िन्दगी से गले मिलना हो।

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