ठहरा शहर छोड़ गया है, शहर का मेरे शिल्पी, ना जाने कहाँ खो गया है, शहर का मेरे शिल्पी,
मेरी कलम से…
आनन्द कुमार
ठहरा शहर छोड़ गया है, शहर का मेरे शिल्पी।
ना जाने कहाँ खो गया है, शहर का मेरे शिल्पी,
जर्रा-जर्रा चुन जिसने, पगडंडी को राह दिया,
गांवों में उल्लास दिया, शहरों को सैलाब दिया।
एक-एक ईंट से शहर मऊ को जिसने है नाम दिया,
विकास की दी लम्बी गाथा, हमें नई पहचान दिया।
ठहरा शहर छोड़ गया है, शहर का मेरे शिल्पी।
ना जाने कहाँ खो गया है, शहर का मेरे शिल्पी,
ताल्लुक ना था तहसील से मेरा, जिले का नाम दिया,
ऐसे सृजनकार को मेरा, शहर क्यों है हार दिया।
बहुत अभिमान शहर को था, सिंगापुर बनने का,
जस का तस छोड़ गया है शहर का मेरे शिल्पी।
ठहरा शहर छोड़ गया है, शहर का मेरे शिल्पी।
ना जाने कहाँ खो गया है, शहर का मेरे शिल्पी,
शहर क्या छोड़ा अनाथ हो गये, इस भीड़ की सागर में,
एक अदद ”कल्पनाथ” ना मिला, नेताओं के गागर में।
दो दशक होने को है, दूर गये उस जननायक को,
लगता है अभी-अभी हमें छोड़ गया है शहर का मेरे शिल्पी।
ठहरा शहर छोड़ गया है, शहर का मेरे शिल्पी।
ना जाने कहाँ खो गया है, शहर का मेरे शिल्पी,