घोसी : एक बार फ़िर भूमिहार या राजभर करेंगे राज?
@संजय दुबे (वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार)
आम चुनाव का बिगुल बज चुका है। सभी दल चुनावी तैयारी में जुट गये है। घोसी लोकसभा सीट पर मतदान आखिरी चरण में होंगे। वोटिंग भले इस सीट पर सबसे बाद में है पर, अबकी इस पर दावेदारी की चर्चा दिल्ली तक में खूब रही है। सुभासपा के डॉ अरविन्द राजभर,यहां से एनडीए के प्रत्याशी है। जो, उत्तर प्रदेश के चर्चित नेता और मंत्री ओमप्रकाश राजभर के पुत्र है।हालांकि अबकी भाजपा से कई नाम चर्चा में थे। जिसमें पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं, मंत्रियों सहित पश्चिम बंगाल प्रभारी युवा नेता शक्ति सिंह भी शामिल रहें। इन्होंने तो बकायदा अपना कैंपेन भी मोदी सरकार की उपलब्धियों को जनता के बीच बताने के बजरिये चलाया। चर्चा में उत्तर प्रदेश सरकार के नये बने कारागार मंत्री दारा सिंह चौहान, कद्दावर मंत्री ए. के. राय शर्मा का भी नाम था। मगर,भाजपा ने ये सीट अपने सहयोगी सुभासपा को दे दी। जिसके बाद देखने, सुनने में ये आ रहा है कि एनडीए ने ये सीट सुभासपा को देकर अपने पार्टी के तमाम नेताओं सहित कार्यकर्ताओं तक को निराश कर दिया है। कई राजनैतिक समीक्षक इसे गठबंधन की मजबूरी बता रहे है तो कुछ इसे समझदारी बता रहे है। ऐसा नहीं है कि दिल्ली में इस सीट मंथन नही हुआ होगा। जरूर हुआ होगा।ध्यान से देखने पर काफ़ी सोचा समझा निर्णय ये प्रतीत होता दिख रहा है। केंद्रीय नेतृत्व को ये भी पता है कि हर चुनाव के पहले हर दल में असंतोष कुछ दिनों तक़ दिखता है। कुछ नाराजगी दिखती है। हर दल में गुटबाजी चलती है। जिसे पार्टी के प्रभावी नेता वोटिंग तक अपने प्रयास से ठीक कर लेते है।
दरअसल,पिछले चुनाव में बसपा ने यहां भाजपा को 122568 वोटों से हराया था। ये चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण था क्योंकि बसपा उम्मीदवार नये थे। उनको अपने काम का ब्यौरा भी नहीं देना था। बावजूद इसके सिर्फ़ जातीय गुणा गणित के दम पर वो चुनाव जीत गए। सपा से गठबंधन का इन्हें भरपूर फायदा मिला। बसपा के टिकट पर मौजूदा सांसद अतुल सिंह (राय ) ने कुल पड़े वोटों का सवा पचास प्रतिशत वोट अकेले झटक लिया। जबकि भाजपा को साढ़े उनतालिस प्रतिशत वोट मिलें। जिससे उसे दूसरे स्थान से ही संतोष करना पड़ा। अब ज़रा एक नज़र 2014 के लोकसभा चुनाव पर डालते है। इस चुनाव में भाजपा ने 36.52 प्रतिशत वोट हासिल कर तब बसपा के प्रत्याशी रहें दारा सिंह चौहान को 146015 वोट से हराया था। इस चुनाव में मोदी फैक्टर के साथ सपा, बसपा, का अलग – अलग चुनाव लड़ना भी काफ़ी अहम रहा। क्योंकि भाजपा ने यहीं से अपने वोटों में जबरदस्त इजाफा किया।यहीं से उसका -“अबकी बार, मोदी सरकार” का नारा लोगों को खूब भाया। जबकि 2009 के चुनाव में कुल पड़े वोटों में भाजपा को महज़ 12.45 प्रतिशत ही वोट मिले थे।
ऐसी सूरत में भाजपा ने सुभासपा पर अपना दाँव सोच समझ कर चला है। एक, ओमप्रकाश राजभर,जो,दलितों और पिछड़ो को राजनैतिक हिस्सेदारी दिलाने का दम्भ हमेशा से भरते रहें है। उन्हें, ये,अबकी साबित करना होगा कि ये समुदाय भी इनके साथ है।उनके कभी अभिन्न सहयोगी रहे महेंद्र राजभर अब सपा के साथ पीडीए का हिस्सा है।ओमप्रकाश राजभर दबाव की राजनीति करना बखूबी जानते है। वो, कभी भी किसी का साथ छोड़, पकड़ सकते है। उनके इस फन से सभी दल बखूबी वाकिफ है। भाजपा, 400 पार के नारे के साथ चुनाव लड़ रही है। उसको लग रहा है कि जातीय समीकरण और मोदी, योगी फैक्टर उसे फ़िर 2014 जैसी जीत दिला सकते है। सपा, बसपा, अलग – अलग चुनाव लड़ रहे है। इनके परम्परागत वोटर अगर इन्हें वोट करेंगे तब, उसे,चुनाव जीतने में आसानी होगी। कहीं इनके वोट बैंक में से कुछ प्रतिशत भी वोट उसे मिलते है तब उसके अपने वोटबैंक के साथ जीतना लगभग तय हो जायेगा।
अब, ज़ब, सपा ने राजीव राय को एक बार फ़िर टिकट दिया है तो उसकी भी रणनीति कांटे से ही कांटे निकालती दिख रही है। उसको लग रहा है कि राजीव राय घोसी और सपा के लिए नये नहीं है।उन पर बाहरी होने और दलबदलू होने का आरोप भी नहीं लगेगा। क्योंकि अभी हाल ही में घोसी विधानसभा चुनाव में एक चुनावी मुद्दा ये भी बना था कि फ़िर से विधानसभा पहुंचने और हाल ही में मंत्री बने नेताजी के लिए दल, बदलना भारी पड़ा था। सपा मान कर चल रही है कि उसके ‘एमवाई’ समीकरण के साथ कहीं अगड़ी जाति के भी वोट उसे मिल जायेंगे तब,उसकी भी जीत हो सकती है। सपा फिलहाल जहां लड़ाई में दिख रही है वहीं अभी,बसपा ने अपना प्रत्याशी नहीं उतारा है। मऊ नगर पालिका चेयरमैन अरशद जमाल का नाम चर्चा में है। अभी इसकी चर्चा भर है फाइनल नहीं है। फ़िर भी, अगर,ये चुनाव लड़े तब यहां कि चुनावी टक्कर जोरदार देखने को मिल सकती है। क्योंकि यहां दलितों और मुस्लिमों के ही वोट सर्वाधिक है। अब, ऐसी सूरत में चुनाव काफ़ी दिलचस्प होने की संभावना दिख रही है। जातिगत आधार पर जहाँ सर्वाधिक जीत भूमिहार जाति को लगभग एक दर्जन से ज्यादा बार मिली है वहीं राजभर को जीत एक बार ही मयस्सर हुई है। ऐसे में पार्टियों के संगठन पर काफ़ी अहम जिम्मेदारी आती दिख रही है। उनको अपने-अपने परम्परागत वोटरों को बूथ तक ले जाने के साथ दूसरे दलों के असंतुष्ट वोटरों को अपनी तरफ़ लाने में भी काफ़ी मशक्कत करनी पड़ेगी। घोसी की सीट पर अब तक सर्वाधिक बार जीत का रिकॉर्ड बनाने वाली भूमिहार जाति क्या इस बार भी जीत हासिल करेगी? ये चुनाव बाद पता चलेगा। पर हाँ!ऐसा करने के लिए उसे अपने बिरादरी के साथ अन्य जातियों को भी साथ लाना होगा। उसके लिए सपा की सायकिल से कितनी और कैसे दूरी तय करनी है, इसकी एक पुख्ता और कारगर रणनीति बनानी पड़ेगी। इसी तरह की सफलता के लिए ऐसी ही कोई ठोस योजना राजभर जाति को भी बनानी होगी। उन्हें भी अन्य जातियों को अपने साथ लाने का प्रयास ही नहीं बल्कि विश्वास भी दिलाना होगा कि उनके साथ सभी जातियों का भविष्य सुरक्षित है। ऐसा कौन करेगा अबकी बार? फ़िर से भूमिहार या अबकी राजभर जाति करेगी इस सीट पर राज? इसके रंग, होली के रंग के बाद चुनावी रंग चढ़ने पर दिखने लगेंगे। बाकी, परिणाम के बाद।